आजकल
(ग़ज़ल)
रह गया है वफ़ाओं का नाम आजकल ।
इक दिखावा है दुनिया में आम आजकल ।
फ़ीक़ी-फ़ीक़ी सी कलियाँ हैं ग़ुल है उदास
ग़ुलसिताँ का है बिखरा निज़ाम आजकल।
देख ले ज़िंदगी का तू मेरी वरक़
लिख रहा हूँ मैं तेरा ही नाम आजकल।
तिश्नग़ी जिनकी क़िस्मत में लिखी थी अब
ख़ूब छलका रहें हैं वो जाम आजकल।
अच्छे- अच्छे अदब को तरसने लगे
मिट गया है शराफ़त का नाम आजकल।
अब तो अपने भी अपने नहीं काम के
ग़ैर के कौन आता है काम आजकल।
फूल बनकर हसीं से हसीं ए रिशी
राहों में उनकी बिछना है काम आजकल।
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