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Tuesday, 11 February 2020

ऋतु श्रृंगार (कविता) - जगदीश 'गुप्त'


ऋतु श्रृंगार
(कविता)
बसंत ऋतु
ऋतुएं देश की ऐसी जैसे
हो उर्वशी की चंचलता
मंत्रमुग्ध करतीं पल - पल
अपना यौवन अमृत अर्पण कर

बसंतोत्सव का द्वार सजाए
मूक निमंत्रण से हर्षित कर
कलवित - पुष्पित सौरभ अर्पित कर
मातृप्रेम का पाठ सिखाती
ग्रीष्म ऋतु
नवयौवन ने लेकर करवट
श्रम से अपना किया श्रृंगार
तपती जलती देश की माटी
उगले सोना अपरंपार

और सरित देती जल अपना
नभ की प्यास बुझाए सागर
सर्वस अपना वतन की खातिर
कहती माटी बारम्बार

वर्षा ऋतु
प्यास बुझी नव तन पाया
बिखरा रूप विभिन्न अंगों में
नवश्रृंगार जतन से पाया
आकर्षण का जादू छाया

गरजत बरसत मेघमालिनी
नववधु की बारात सजाए
नाना परिधानों में विहंसती
धरती लाज से शरमा जाए

शरद ऋतु
भाव विभोर हो रही चाँदनी
गीत प्रणय चंदा ने गाये
चकोर निरख रहा चंदा को
स्वाति नक्षत्र की आस लगाए

विरहाकुल प्रीतम को टेरे
चाँद शरद की प्यास बुझाये
नवल - धवल कण कण की काया
जीवन का अनुराग सुनाये

हेमन्त ऋतु
माघ पूष की ठंडी रातें
ठिठुर रहा कर्मशील किसान
माटी के पौधों पर देखो
करता पल - पल दृष्टिपात

उधर हिमाला खड़ा शान से
पहिने मुकुट बर्फ की माल
निशदिन चौकस देश की खातिर
धन्य देश के वीर जवान

शिशिर ऋतु
स्वच्छ चांदनी शीतल वायु
डाले प्रीत की डोरी
नववधु कर श्रृंगार चंद्र को
चाहे जैसे चकोरी

बिखरे पौधे कण - कण नाचे
महके देश की माटी
हलधर यह सन्देश सुनाए
ऐसे फलती प्रीत की पाती

है जो मातृभूमि अपनी यह
स्वर्ग धरा पर है कहलाती 
-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

-०-


***
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1 comment:

  1. सुन्दर रचना के लिये आप को बहुत बहुत बधाई है आदरणीय !

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