एक दिन
मैंने कैलेंडर से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और अपने मन की करने लगा
एक दिन मैंने
कलाई-घड़ी से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और खुद में खो गया
एक दिन मैंने
बटुए से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और बाज़ार को अपने सपनों से
निष्कासित कर दिया
एक दिन मैंने
आईने से कहा --
आज मैं मौजूद नहीं हूँ
और पूरे दिन उसकी शक्ल नहीं देखी
एक दिन
मैंने अपनी बनाईं
सारी हथकड़ियाँ तोड़ डालीं
अपनी बनाई सभी बेड़ियों से
आज़ाद हो कर जिया मैं
एक दिन
-०-
पता:
सुशांत सुप्रिय जी की रचनाएं पढ़ने के लिए शीर्षक चित्र पर क्लिक करें!
बहुत खूब सभी बंधनों से मुक्त हो कर ऐसे खुद के लिए भी जिना चाहिए
ReplyDelete