घर गृहस्थी का सुख त्याग कर उन्होंने अपने चार साथियों के साथ देश – विदेश की तिर्थयात्राएं की।इन यात्राओं को पंजाबी में ‘उदासियां ‘कहा जाता है।उनके सुविचारआधुनिक युग में अधिक प्रासंगिक हैं।उनके जीवन की ढेर सारी हृदयस्पर्शी , मर्मस्पर्शी घटनाएं और प्रेरक प्रसंग हैं , जोकि उनकी महानता , दयालुता दर्शाने के लिए काफी हैं।
एक बार वे बदमाशों के गांव पहुंचे।गांववासियों को आशीर्वाद देते हुए कहा , ‘ यहीं बसे रहो।‘इसी तरह सज्जन और विद्वानों से भरे व्यक्तियों के गांव पहुंचकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा , ‘ उजड़ जाओ।‘इसके पीछे गहरा मर्म छिपा हुआ है।उनका तात्पर्य यह था कि बुरे लोग गांव से निकलकर बाहर जाएंगे तो बुराई ही फैलाएंगे।इसके विपरीत अच्छे – भले लोग भिन्न – भिन्न जगहों पर जाकर सत्य, भाईचारे का प्रकाश फैलाएंगे।सदैव समाज हित का ही काम करेंगे।
नानक जी को उनके पिताजी ने कुछ रूपए दिये और पड़ौसी गांव से कुछ ऐसी चीजें खरीदकर लाने को कहा, जिससे शुद्ध लाभ कमाया जी सके।रास्ते में नानकजी को साधु मण्डली मिली, जिन्होंने उपवास रखा हुआ था।उन साधुओं को परम् विश्वास था कि कोई प्रभु का प्यारा उनके भोजन का बंदोबस्त अवश्य करेगा।नानकजी के दिल में दया उत्पन्न हुई।उन्होंने पिताजी द्वारा दिए गए रुपयों में से साधुओं के खाने – पीने का उचित प्रबंध किया।खाली हाथ घर लौट आए।उन्होंने अपने पिताजी को आकर बताया कि वे “सच्चा सौदा “कर आए हैं।यह प्रसंग उनके दया , धर्म , कर्म के प्रति गहरी आस्था का परिचायक है ।उन्होंने 70 साल की उम्र में खेतों में हल चलाकर सारे संसारवासियों को सुंदर , सटीक, सार्थक संदेश दिया कि शरीर को चुस्त , दुरूस्त , स्वस्थ रखने के लिए सक्रियता अत्यावश्यक है।निष्क्रियता आदमी को आलसी बनाता है।निकम्मा , निठल्लापन नकारात्मक विचारों को न्यौता देने जैसा है ।
वे न सिर्फ़ महान दार्शनिक थे , बल्कि धर्म सुधारक , समाज सुधारक भी थे ।पंजाबी के अलावा संस्कृत , सिंधी आदि भाषाओं पर उनकी पकड़ मजबूत थी।उनके विचारों में कोमलता , भावुकता , उदारता , दयालुता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।उन्होंने हमेशा पुराने रूढिवादी विचारों , कुरूतियों का जमकर विरोध किया।वे अंधविश्वास और मूर्ति पूजा के प्रबल विरोधी थे।उन्होंने सामाजिक , राजनैतिक , धार्मिक आदि विषयों पर भी तीखे प्रहार किए। वे सही मायनों में 'क्रांतिकारी ' संत थे।
जीवन के अंतिम पड़ाव के पहले करतारपुर( अब पाकिस्तान ) में नगर बसाया।वहीं धर्मशाला बनवायी।यहीं से ही ‘लंगर ‘प्रथा कि सराहनीय , अभिनंदनीय , अनुकरणीय और वंदनीय प्रथा का शुभारंभ किया।देश –विदेश के सभी सिख समाजवालों ने इसे तन, मन, धन से स्वीकारा है।आज यह उनकी सम्मानजनक पहचान बन चुकी है , जोकि काबिले गौर भी है।
कुछ साल पहले टी. वी. पर देखा हुआ एक महत्वपूर्ण, अविस्मरणीय कार्यक्रम का स्मरण होते ही हिंदुस्तानी होने पर गर्व की अनुभूति होती है।सिख समुदाय द्वारा गुरू नानक देवजी कीजयंती पर न्यूयार्क ( अमरीका ) में एक भव्य जुलूस निकाला गया था।जुलूस देखकर विश्वास कर पाना कठिन था कि अंग्रेजों की विदेशी भूमि पर यह हो रहा है।सिख महिलाएं, पुरूषों और बच्चों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कुछ स्थानिय अंग्रेज स्त्री – पुरूष भी हंसी – ख़ुशी शामिल थे।जुलूस समापन के पश्चात्, सभी अंग्रेजों को जमीन पर बैठ कर चमचों , कांटों का इस्तेमाल किए बिना अपने हाथों से ‘लंगर ‘का आस्वाद लेते देखना साश्चर्य जनक रहा।मैं इसे भारतीय सभ्यता , संस्कृति , परम्परा का आदर मानता हूं ।
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गुरु देव की जीवनी व अलौकिकता को कलमबद्ध करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
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