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Tuesday, 12 November 2019

अमीरी की रेखा (व्यंग्य लघुककथा) - संतराम पाण्डेय

अमीरी की रेखा
(व्यंग्य लघुकथा)

रेखाएं तो बहुत हैं। इन्हीं रेखाओं के जाल के जंजाल में मनुष्य फंसा पड़ा है। एक देश से दूसरे देश तक। एक-एक इंच जमीन पर भी रेखाएं खिंची पड़ी हैं। बिना रेखा के किसी की औकात ही नहीं नपती। रेखा हो तो औकात तय हो जाती है। सरकार से लेकर उद्योगपति तक। गरीब से लेकर अमीर तक। गरीब तो गरीबी रेखा खिेच जाने से मुतमईन हैं। लेकिन अमीरी की कोई रेखा अब तक न बना पाई कोई सरकार। सरकार गरीबी से ज्यादा परेशान है। वह हर साल गरीबी की रेखा बनाती है और गरीब हैं कि इस रेखा से उतरने का नाम ही नहीं लेते। उनको इसमें ही आनंद आता है। इसे उन्होंने अपने किस्मत की रेखा जो मान ली। सरकार की पेशानी पर बल इसलिए पड़ जाता है कि गरीबी की रेखा छोटी होने का नाम ही नहीं लेती।

सरेखचन्द जी गरीबी की रेखा से तंग नहीं हैं। उनकी चिंता की वजह अमीरी की रेखा का न होना है। सरकार से वह इसलिए खफ़़ा हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक किसी सरकार ने अमीरी की रेखा तय नहीं की। वह कहते हैं कि कोई तो ऐसी रेखा बने जो अमीरी की बार्डर लाइन बने लेकिन सरकार है कि चेत ही नहीं रही।

सरकारों को अपने निशाने पर लेते हुए वह कहते हैं-जब से होश संभाला, यही देखा कि इस बीच सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय वालों को भी यह बात याद न रही। समतामूलक समाज वाले भी इसे भूल गए। समाजवादी समाजवाद लाने में ही रह गए। सेकुलरवादियों का तो पूछो ही मत ना, वो सारे देश को सेकुलरिज्म का पाठ पढ़ाते पढ़ाते देश का भविष्य बनते बनते खुद ही भूत हो लिए। अब सबका साथ, सबका बिकास की बात चल रही है, लेकिन अमीरी की कोई रेखा खींचने के काम का एजेंडा किसी सरकार के पास भी नहीं दिख रहा।

बात अमीरी की रेखा की चल रही है। अब गरीब रोज ही गरीबी के रेखा से नीचे जाने को तैयार बैठा है। बस, एक ही तसल्ली है कि गरीबी की रेखा से नीचे वालों को सरकार याद रखती है। अमीरी की न कोई नीचे की रेखा है न ऊपर की। सो सरकार को चिंता की कोई बात नहीं लगती। सरकारें बनाने और बिगाडऩे में गरीबी की रेखा के नीचे वालों का बड़ा योगदान रहता है। सो सरकारें सरक सरक कर चलती आ रहीं। जबसे अमीर सरकार बनाने की दौड़ में शामिल हुए, तब से सरकारें दौडऩे लगीं। अब सरकारें सरकती नहीं, दौड़ती हैं। समझ में कम आ रहा है कि जर्रे-जर्रे पर गरीबी आबाद है या अमीरी? उस पर राज कौन कर रही है डिप्लोमेसी या फिजियोथेरेपी? सब कुछ ऐसे ही चल रहा है और हम सरेखचन्द जैसे लोग अपनी हैसियत ढूंढ रहे हैं और वो हैं कि हमारी औकात बताय दे रहे हैं। हम मन की अमीरी में खुश हैं और वो तन की अमीरी में। हम अपनी गरीबी की रेखा के तले दबे जा रहे हैं और उनकी अमीरी निर्बाध कुलांचें मार रही है उफनती नदी की तरह। 

तभी निरहुआ बोल पड़ा। कहते हैं कि किस्मतें ऊपर वाला तय करता है लेकिन कुछ एप्लिकेशन तो लेता ही होगा। हम आज तक न ढूंढ पाए कि अमीर बनने की एप्लिकेशन कहाँ पड़ती है। इसीलिए निरहुआ बना घूम रहा हूं। और आप भी सरेख ही बने रहे। अमीरचंद क्यों नहीं बन जाते। आप तो बड़े अमीरों में उठते-बैठते हो। ऊपर तक पहुँच है। थोड़ा और जोर लगाइए। एक दरख्वास्त डाल ही दीजिये। फिर सरेखचन्द से अमीरचंद बन जाओगे। पीछे मेरा भी भला हो जाएगा। कुछ तो करो। सरकार तो अमीर बनाने से रही। न इसका कानून बनेगा, न कोई बनाने की बात करेगा। रेल का टिकट लेने जाते हैं तो सबसे छोटी लाइन में खड़े हो जाते हैं, नंबर जल्दी आ जाता है। टिकट की लाइन की भी कोई रेखा नहीं है। बढ़ती ही जाती है अमीरी की तरह। गरीबी की रेखा हमारे फायदे के लिए है। गरीबी की रेखा न होती तो न जाने कितने अमीरों का दिवाला निकल चुका होता। गरीब कोई है। गरीबी की रेखा कोई और बनाता है और उसका फायदा कोई और उठाकर अमीर बन जाता है। गरीब वहीं का वहीं। उसकी रेखा है न। वह गरीबी की रेखा के नीचे से निकल ही नहीं पाता। 

अब तो सरकार या तो अमीरी की रेखा बना ले या हमको गरीबी की रेखा से बाहर निकाले।
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पता:
संतराम पाण्डेय
मेरठ (उत्तर प्रदेश)


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2 comments:

  1. अत्यंत सुंदर, व्यंग्यात्मक आलेख।

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  2. सुन्दर आलेख

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