मन की चट्टानी, पथरीली
कठोर जमीन पर
थोडी सी नर्म घास,
जिन्दा हो जाता है
तब अपने जीने का अहसास.
जब भी गिध्धों, बाजों
और चीलों के कब्जाये आकाश से,
उड उड कर लौट आती है
नन्हीं सी एक चिडिया,
मेरे स्वप्न,
फिर बादलों में तैरने लगते हैं.
समर्पण और समझौतों की,
अन्धेरी और गहराती सुरंगों के भीतर से
उम्र दर उम्र गुजरते हुए,
जब भी सुलगी है
मेरे भीतर हल्की सी चिंगारी,
उजास की वही छोटी सी किरण
लौटा कर लायी है
मेरा खोया हुआ वजूद.
बिखरे विश्वासों और आस्थाओं का आलोक
जिन्दा होने का अटूट अहसास भी.
-०-
पता:
डॉ. प्रभा मुजुमदार
No comments:
Post a Comment