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Monday, 9 March 2020

कहा गई अब गॉव की होली (कविता) राम नारायण साहू

कहाँ गई अब गांव की होली
(कविता)

अब न रह गई , वैसी   बोली  |  कहा गई अब  गॉव की होली ||
कई  दिन  पहले  होए तैयारी |मोती  पतली ,  लकड़ी भारी ||
जो  जाती थी  लकड़ियों का ढेर  | बीच में  गीला गड़ा  मुढ़ेर ||
जलने के पहले , सजती होली   | अब न रह गई , वैसी बोली  ||
फैशन वाला रंग छा गया | समोसा में नकली भांग आ गया ||
गलिया न रंगो से रंग रही है  |न सखी -सहेली संग रही है  ||
भाभी -देवर की गड़बड़ बोली अब न रह गई , वैसी   बोली
अब बन गया बात नमूना | होली के दिन घर में सूना ||
लोग परम्परा खो रहे है | घर घर दरवाजा बंद हो रहे है ||
बची -कूची अब हमारी होली  | अब न रह गई , वैसी बोली  ||
भूल रहे है , कला और भाषा | फैशन का चल तमाशा ||
त्योहारो को भूल रहे है | बिन डाली के झूल रहे है ||
भूल गए सब आँख मिचौली | अब न रह गई , वैसी बोली ||
गिल्ली - डंडा फेक रहे है |सब टी.वी. में देख रहे है ||
याद न अब इमली-डंडा | पट गया बाटी का गड्ढा ||
अब न रह गई ,गली और खोली  |अब न रह गई , वैसी बोली  ||
बच्चे इंग्लिश बोल रहे है | कंप्यूटर का बटन टटोल रहे है ||
रो रही है अपनी भाषा | कब जाएगी अपनी निराशा ||
ख़ाली हो रही  परंपरा की झोली | अब न रह गई , वैसी बोली  ||
अब न रह गई , वैसी   बोली  |  कहा गई अब  गॉव की होली ||
-०-
राम नारायण साहू 'राज'
रायपुर (छत्तीसगढ़)

-०-



***
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