कोख से बेटी की गुहार
(कविता)
यदि मैं बोल पाती तो ,तुम सुन पाती माँ।
मेरी पुकार...मेरी चीत्कार ...!
मत करो मुझे जन्म देने से इंकार।
रोक लो.....!
मेरे शरीर को चीरते हुए ओजारो को,
नकार दो.....!
तुम्हें मजबूर करने वाले हत्यारों को।
इस हत्या को ,मत दो अंजाम,
आना है मुझे इस दुनिया में,
करने है कुछ काम।
कब तक हम बेटियाँ ,
होती रहेंगी क़ुर्बान...?
गर यूँ ही चलता रहा तो,
अनुपात बिगड़ जाएगा।
किसी विलुप्त होते प्राणी की तरह,
बेटियों का संसार,
विलुप्ती की कगार पर पहुँच जाएगा।
मिल रही हमें,किस बात की सज़ा..?
क्या बेटी होना ही है गुनाह.....?
मैं तो तेरे अस्तित्व का प्रमाण हूँ।
सृष्टि का कथानक हूँ,
जननी हूँ, इंसान हूँ।
कन्या हूँ ,तो सपने देखने की इजाज़त नहीं है..?
अब मुझे बेड़ियाँ पहन कर,
चलने की आदत नहीं है।
मेरा जन्म लेना ज़रूरी है,
हमारे बिन सृष्टि अधूरी है।
सामंजस्य से ही परिवार है,
उसी से देश का आधार है।
जानती हूँ....,
जन्म लेते ही जंग लड़नी होगी,
मुझे जन्म देने की इच्छा तो पूरी करनी होगी।
तू डर मत माँ...,मैं भी नहीं डरूँगी,
इस दुनिया से अकेले लड़ूँगी।
मैं रोटियाँ बेलूँगी,तलवार भी लहराऊँगी,
विकास के सोपानों पर,
अपने बल पर चढ़ जाऊँगी।
मेरी कोमलता को कमज़ोरी मत आँको ,
मुझे गर्भ में ही कुचल कर मत मारो।
यूँ भी देश में...,
दरिंदगी पसर रही है,
दुष्कर्म ओर दरिंदगी की,
घटनाए घट रही हैं।
सरकार सो रही है,
बेटियाँ रो रही हैं।
इंसान जानवर से गिद्ध बनने को चला है,
हर कोई भेड़िया बन,
अबला को नोच रहा है।
मैं ऐसा नहीं होने दूँगी,
सामना करूँगी।
माँ मैं फूलन बनूँगी,
कोई आँख उठा देखे तो,
सर क़लम करूँगी।
क़ानून कमज़ोर है,
केस बनेगा,
सालों साल चलेगा।
प्रशासन चुनाव लड़ेगा,
जीतने वाला ,
अपनी सरकार गढ़ेगा
कोई जिए या मरे,
उसे फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
तू डर मत माँ...।
माना कि ज़माना ख़राब है,
तेरी बेटी भी ,
काली बनने को बेताब है।
तुम सुन रही हो ना.....माँ..?
मुझे .....जन्म तो ....दोगी ना....?-०-
पता
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