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Thursday 5 December 2019

'होली' (हास्य व्यंग्य कविता) - राम नारायण साहू 'राज'


'होली'
(हास्य व्यंग्य कविता)
मैंने पत्नी से बोला - इस बार होली को धूमधाम से मनाएंगे।
पहले होलिका को जलाकर, फिर रंग गुलाल लगाएंगे।।
पत्नी तपाक से बोली - अपने बातो का पिटारा खोली।
छज्जे में रखी लकड़ी को हाथ मत लगाना।
नही बरसात में आपको , बनाना पड़ेगा खाना।
मैंने कहाँ सुन गुड्डा और गुड्डी की अम्मा।
मैंने पहले से जुगाड़ कर लिया है कचरा और खम्बा।
इस बार शहर में फैले कचरे की होली हम जलाएंगे।
गंदगी के साथ साथ , अंदर छुपे शैतान को भी भगायेंगे।
पत्नी की सहमति मिलने पर , होली जलाई गई।
और पत्नी द्वारा मिठाई भी मगाई गई।
दूसरे दिन जब मैं , रंग गुलाल लेकर घर से निकला।
मैं पत्थर दिल आदमी, बर्फ की तरह पिघला।
जब आपने दोस्त को, सलवार सूट में पाया।
थोड़ी देर के लिए मैं भी चकराया।
मैंने उससे एक सवाल पूछ डाला।
अरे तूने अपना शर्ट और पेंट क्यो निकाला।
दोस्त बोला ये मेरे यार मेरी बातों को ध्यान से सुन।
तू भी कोई रंग बिरंगी साड़ी को चुन।
तू मेरी भाभी, मैं तेरी देवरानी।
तभी तो रंग खेलने आएगी पड़ोसी सयानी।
बात उसकी जम गई और बात मैंने मान ली।
ये बात पड़ोसी वाली जान ली।
छत के ऊपर से ही ऐसा कर दी कमाल।
इसके बाद मत पूछो भाई, कपड़े भी लाल और बदन भी लाल।
अच्छे से शुरू हुई, रंग हुड़दंग की शुरुआत।
ये होली हमेशा रहेगी याद।
पूरे गांव में खूब होली खेली गई।
लेकिन कही कही दरूहो की गाली भी झेली गई।
शाम को मैंने दोस्त से पूछा और अब क्या करबानी है।
उसने कहा चल मेरे घर बम्फर और बिरयानी है।
साथ में पियेंगे और बिरयानी खाएंगे।
रातभर होली के फाग सबसे गवाएंगे और गाएंगे।
और फिर एक बार फिर से होली का रंग जमाया गया।
फाग भी सुनाया और रंग भी लगाया गया।-०-
राम नारायण साहू 'राज'
रायपुर (छत्तीसगढ़)

-०-



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