दीपशिखा सी
(कविता)
जल रही वह दीपशिखा सी
धीरे -धीरे मंदिम मंदिम।
मन है कम्पित,मन है शंकित
जलधि सा उत्साह,आशंकित।
जीवन घन तम सा विकल है
तड़ित का तन मन व्यथित है।
आँसूओं से तर है आंचल।
व्यथित हो जलहीन जलचर।
उर उठे भूचाल अगनित
चटकती नभ तोड़ तड़ित।
मोह अब खुद से नहीं है
दीप लो जब से बनी है।
छोड़ सब जुगनू गये अब
रीत जब बाती गयी है।
घिर गया तम से तन मन
सुमन से रीता है उपवन।
घिर गयी थी जब जली थी।
सुलगती थी तब हरी थी।
हो गये थे साथ सारे
आज जो है सब किनारे।
दिखाती थी राह सबको।
पथ से भटके सब विहग को।
वो जली जब तूलिका से
साथ में थे सारे अपने
मंद वो होने लगी जब
मिट गये रंगीन सपने।
थी अजब उसकी कहानी
जल रही वह दीपशिखा सी।
जल रही वह दीपशिखा सी
धीरे -धीरे मंदिम मंदिम।
मन है कम्पित,मन है शंकित
जलधि सा उत्साह,आशंकित।
जीवन घन तम सा विकल है
तड़ित का तन मन व्यथित है।
आँसूओं से तर है आंचल।
व्यथित हो जलहीन जलचर।
उर उठे भूचाल अगनित
चटकती नभ तोड़ तड़ित।
मोह अब खुद से नहीं है
दीप लो जब से बनी है।
छोड़ सब जुगनू गये अब
रीत जब बाती गयी है।
घिर गया तम से तन मन
सुमन से रीता है उपवन।
घिर गयी थी जब जली थी।
सुलगती थी तब हरी थी।
हो गये थे साथ सारे
आज जो है सब किनारे।
दिखाती थी राह सबको।
पथ से भटके सब विहग को।
वो जली जब तूलिका से
साथ में थे सारे अपने
मंद वो होने लगी जब
मिट गये रंगीन सपने।
थी अजब उसकी कहानी
जल रही वह दीपशिखा सी।
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