कुंआ रोज खोद कर ही
(कविता)
गठरी में गठियाए
जिनमें कुछ पुरुष
कुछ महिलाएं
युवा, वृद्ध बाल
सभी घर जाने को घबराए,
पुरुष कंधे पर
स्त्रियां अंक में शिशुओं को सुलाए,
साधनहीन ,खाली पेट
चेहरे हैं मुरझाए,
थके -थके से पांव हजारों
बंद सड़क पर
आखिर क्यों हैं आए...?
क्या मुंबई क्या दिल्ली
क्या गुजरात
क्या हैदराबाद
उजड़े हुए चमन हैं इनके
अब तक थे आबाद...।
हुई घोषणा इक्कीस दिन तक
घर पर करें आराम
राशन पानी पहुंचाने का
कर देंगे इंतजाम...।
आखिर कौन निकाल रहा अब
फैलाकर अफवाह...
इन श्रमिको हित
आगे आना ही होगा सरकार...!
कुंआ रोज खोद कर ही ये
कर पाते जलपान...।
-०-
सुन्दर कविता के लिये आपको बहुत बहुत बधाई है आदरणीय !
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