मैं और तुम
(कविता)
“मैं ओर तुम “कब हो गए हम।
पता ही ना चला।
याद हैं वो पल? जब मिले मैं ओर तुम।
कुछ बातें रोमांस की, कुछ प्यार की,
रंग जमाती बसंती बयार थी।
दो अनजान दिलों ने जब बात छेड़ी थी,
दो धड़कते दिलों को ,
रूमानी रंग देने में,
कहाँ कसर छोड़ी थी?
प्यार में डूबे कुछ अंतरंग पल थे,
कब मेरे तुम्हारे रिश्ते बदलने लगे थे ,
पता ही ना चला ...।
फिर शादी से पहले,ओर शादी के बाद,
वक़्त के साथ साथ...
बदलता रहा हमारा रिश्ता,
रिश्ते नाते,दिल दोस्ती की बातें,
वो पहला स्पर्श,प्यार का अहसास,
कब ले आता तुम्हें मेरे पास ।
पता ही ना चला...।
तन मन से जुड़े कुछ सवाल,
उन सवालों के समाधान,
तुम्हारे ज़िद्दी स्वभाव के ,
पीछे का मनोविज्ञान।
ज़ायक़े में दिल परोसने का,
मेरा अनूठा अन्दाज़ ,
कब ले आता तुम्हें मेरे पास ?
पता ही ना चला...।
मेरा तुम्हारा रिश्तों का नया समीकरण,
बन जाते मैं ओर तुम “हम”।
कुछ सार्वजनिक तो कुछ ,
नितांत निजी पल।
कुछ साधारण,
तो कुछ असाधारण सी हलचल।
कब बंध गए थे इस अटूट बंधन में,
पता ही ना चला..।
क़ैद कर लेते तुम,
तस्वीरों में स्मृतियों में,
हर पल हर दिन,खड़े रहे मेरे साथ ,
दुशवार से दुशवार स्थितियों में ,
बदलती परिस्थितियों में..,
देते रहे मेरा साथ,
कब मुझे हो गया विश्वास,
पता ही ना चला...।
कभी कभी हमारे व्यवहार में,
लड़कपन की बू आती,
बातों बातों में ठन जाती,
तुम मनाते, मैं रूठ जाती,
तुम रूठ जाते, मैं मनाती।
झगड़े के बाद,
समझोते की राह अपनाते,
ज़िंदगी को फिर ख़ुशनुमा मोड़ पर ले आते।
शांत पड़ी दोस्ती में ,
कब गरमाहट आ जाती,
कब मैं ओर तुम ,हो गए हम,
पता ही ना चला..।
-०-
पता
पता ही ना चला।
याद हैं वो पल? जब मिले मैं ओर तुम।
कुछ बातें रोमांस की, कुछ प्यार की,
रंग जमाती बसंती बयार थी।
दो अनजान दिलों ने जब बात छेड़ी थी,
दो धड़कते दिलों को ,
रूमानी रंग देने में,
कहाँ कसर छोड़ी थी?
प्यार में डूबे कुछ अंतरंग पल थे,
कब मेरे तुम्हारे रिश्ते बदलने लगे थे ,
पता ही ना चला ...।
फिर शादी से पहले,ओर शादी के बाद,
वक़्त के साथ साथ...
बदलता रहा हमारा रिश्ता,
रिश्ते नाते,दिल दोस्ती की बातें,
वो पहला स्पर्श,प्यार का अहसास,
कब ले आता तुम्हें मेरे पास ।
पता ही ना चला...।
तन मन से जुड़े कुछ सवाल,
उन सवालों के समाधान,
तुम्हारे ज़िद्दी स्वभाव के ,
पीछे का मनोविज्ञान।
ज़ायक़े में दिल परोसने का,
मेरा अनूठा अन्दाज़ ,
कब ले आता तुम्हें मेरे पास ?
पता ही ना चला...।
मेरा तुम्हारा रिश्तों का नया समीकरण,
बन जाते मैं ओर तुम “हम”।
कुछ सार्वजनिक तो कुछ ,
नितांत निजी पल।
कुछ साधारण,
तो कुछ असाधारण सी हलचल।
कब बंध गए थे इस अटूट बंधन में,
पता ही ना चला..।
क़ैद कर लेते तुम,
तस्वीरों में स्मृतियों में,
हर पल हर दिन,खड़े रहे मेरे साथ ,
दुशवार से दुशवार स्थितियों में ,
बदलती परिस्थितियों में..,
देते रहे मेरा साथ,
कब मुझे हो गया विश्वास,
पता ही ना चला...।
कभी कभी हमारे व्यवहार में,
लड़कपन की बू आती,
बातों बातों में ठन जाती,
तुम मनाते, मैं रूठ जाती,
तुम रूठ जाते, मैं मनाती।
झगड़े के बाद,
समझोते की राह अपनाते,
ज़िंदगी को फिर ख़ुशनुमा मोड़ पर ले आते।
शांत पड़ी दोस्ती में ,
कब गरमाहट आ जाती,
कब मैं ओर तुम ,हो गए हम,
पता ही ना चला..।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-0-
बहुत बहुत बधाई है आदरणीयाा! सुन्दर रचना के लिये।
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