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Thursday, 1 October 2020

पूर्णविराम के बाद (लघुकथा) - विवेक भारद्वाज

पूर्णविराम के बाद
(लघुकथा)

 राहुल की मां तू चिंता मत कर ,रिजल्ट अच्छा ही आएगा। तेरे माथे पर ये चिंता की लकीरें तिलक पर चावल की तरह लगती है, जो खुशी के समतल वातावरण में थोड़ा उभार सा दर्शाती है । राहुल को देख आज कितना प्रसन्न है ,और हो भी क्यों ना ,सारे साल की मेहनत का फल जो उसे आज मिलने वाला है। आ गया! आ गया! क्या आ गया जी? अरे! राहुल का रिजल्ट आ गया। फिर जल्दी देखो ना पापा ।हां बेटा रुक अभी देखता हूं ।क्या हुआ राहुल के पापा आप चुप क्यों हैं ?अरे राहुल तू तो कुछ बता ।राहुल की मां इतनी रैंक में तो राहुल को सिर्फ एनआईटी ही मिलेगी, आईआईटी में एडमिशन नहीं होता। पर बेटा तू परेशान मत हो। पर पापा मेरे एक साल की मेहनत तो बर्बाद हो गई, अब जीवन जीने का क्या फायदा। ऐसा मत बोल बेटा तेरे दिमाग से यह अनर्गल विचार निकाल दे ।राहुल सारी रात सो नहीं पाया, और निश्चय करता है कि वह अपने जीवन को समाप्त कर देगा। अगले दिन राहुल रेलवे स्टेशन के लिए घर से पैदल ही निकलता है। उसकी खामोशी मानो बाजार के कोलाहल को भी अनदेखी कर रही थी ।तभी राहुल का ध्यान सामने से आ रहे एक बाबा की बातों पर पड़ता है जो कह रहे थे; 
                  "  जो पूर्णविराम के बाद भी लिख दे।
                      जीवन की वह सबको सीख दे ।"
 उन शब्दों में राहुल खो सा गया ।ट्रेन की आवाज धीरे धीरे तेज हो रही थी ,और अचानक से राहुल उसके आगे कूद गया ।उसके शव के चारों ओर भीड़ लग गई। राहुल के माता-पिता भी घटनास्थल पर पहुंच गए। राहुल की मां शव को देख कर बेहोश हो गई ,तभी राहुल जोर से चिल्लाता है, मां ,मां ।वह बाबा राहुल से बोलते हैं क्या हुआ बेटे कब से देख रहा हूं ,मुझे ही टकटकी लगाए देखे जा रहा है, और अब जोर जोर से चिल्ला  रहा है। किन विचारों में इतना मगन है ।कुछ नहीं बाबा बस अभी पूर्णविराम के बाद  देख कर आया हूं।
-०-
पता:
विवेक भारद्वाज
सिरसा (हरियाणा)

 

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