*ख्वाहिशों की रज़ाई*
(कविता)
बिखरी सुनहली
धूप को समेटकर ,
बैंगनी,लाल
गुलाबी आभा से
क्षितिज को सजाकर
ये शाम दिसम्बर की
आगोश में
भर लेती है
धरा को
ये रंग सारे फिर
गुम हो जाते हैं
चाँद के इर्द गिर्द
और मेरे मन में
फिर जगती हैं
उम्मीदे टिमटिमटिमाते
तारों सी , दूधिया बादलों
की ओट से मानो
चाँद मुस्कुराता है
तुम ज़हन में
चलते हो तो
ये ठंड भी गुनगुनी
लगती है
सर्द हवाएं छूकर जाए
तो ये काया ढूंढती है
तुम्हारे स्पर्श की
गर्माहट...
मैं जानती हूँ
तुम यहीं कहीं
आसपास रहते हो
रात की खामोशियों में
गूंजते हो याद बनकर
यूँ अनमना सा रहना
दिन भर अच्छा लगता है
जाड़ों की इन कंपकंपाती
रातों में ख्वाहिशों की
रज़ाई ओढ़कर सोना
अच्छा लगता है।
(कविता)
बिखरी सुनहली
धूप को समेटकर ,
बैंगनी,लाल
गुलाबी आभा से
क्षितिज को सजाकर
ये शाम दिसम्बर की
आगोश में
भर लेती है
धरा को
ये रंग सारे फिर
गुम हो जाते हैं
चाँद के इर्द गिर्द
और मेरे मन में
फिर जगती हैं
उम्मीदे टिमटिमटिमाते
तारों सी , दूधिया बादलों
की ओट से मानो
चाँद मुस्कुराता है
तुम ज़हन में
चलते हो तो
ये ठंड भी गुनगुनी
लगती है
सर्द हवाएं छूकर जाए
तो ये काया ढूंढती है
तुम्हारे स्पर्श की
गर्माहट...
मैं जानती हूँ
तुम यहीं कहीं
आसपास रहते हो
रात की खामोशियों में
गूंजते हो याद बनकर
यूँ अनमना सा रहना
दिन भर अच्छा लगता है
जाड़ों की इन कंपकंपाती
रातों में ख्वाहिशों की
रज़ाई ओढ़कर सोना
अच्छा लगता है।
-०-
सविता दास 'सवि'
शोणितपुर (असम)
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