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Tuesday, 21 January 2020

पापड़वाला (कघुकथा) - अशोक वाधवाणी


पापड़वाला
(लघुकथा)
आलोक को निजी नौकरी की आमदनी से घर चलाने में अड़चनें आती देखकर, पत्नी खुशबू ने सुझाव दिया पापड़ बनाने का गृह उद्योग शुरु करने का।सलाह पसंद आने पर, तुरंत हामी भर दी। 100 / 200 ग्राम के छोटे – छोटे पैकेट बनाए और छुट्टी के दिन, सुबह – सुबह साइकिल पर पापड़ों से भरा झोला लटका कर चल पड़ा, बेचने के लिए गंतव्य स्थान की ओर।
आलोक एक दुकानदार के पास पहुंचा।नमस्ते कहा।अपने पापड़ दिखाते दाम भी बताया।दुकानदार बड़ी बेरूखी से बोले, “ अगर दाम कुछ कम करते हो तो ही ख़रीदूँगा।“आलोक ने उन्हें समझाते हुए कहा, “ भाव कम करना संभव नहीं है।पापड़ बनाना काफी कठिन काम है।इस में उच्च कोटि की काली मिर्च और जीरा डाला है।क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं किया है।पहले खाकर देखें।संतुष्टि होने पर ही खरीदें।“आलोक ने दो भुने सैम्पल पापड़ दुकानदार की ओर बढ़ा दिए।दुकानदार ने जवाब देने के बदले मुंह फेर लिया।आलोक दुकानदार के व्यवहार से निराश होकर, वहां से चला गया।
आहिस्ता – आहिस्ता आलोक के पापड़ों की बिक्री बढ़ने लगी।इसके बावजूद वो उस दुकानदार के पास हर सप्ताह जरूर जाता।पापड़ ख़रीदने को कहता।मना करने पर भी मुस्कुराकर लौट आता।कई सप्ताहों तक यही सिलसिला जारी रहा।एक दिन दुकानदार ने मोल – भाव किये बिना, ख़ुशी – ख़ुशी पापड़ ख़रीद लिये।दुकानदार ने आलोक से प्रेम पूर्वक कहा, “ मेरे रूखे – सूखे व्यवहार के बावजूद, हर बार इस आशा के साथ आना कि अबकी बार मैं पापड़ जरूर ख़रीदूँगा, यह तुम्हारी सकारात्मक सोच है।एक सफल व्यापारी में संयम, सब्र का जो गुण होना चाहिए, वो तुम्हारे अंदर मौजूद है।बहुत जल्दी तरक्की करोगे।“अपनी स्तुति सुनकर गद्‌गद्‌ हुए आलोक के चेहरे पर, अपने उद्देश्य में सफल होने का आनंद साफ दिखाई दे रहा था।
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पता :
अशोक वाधवाणी
कोल्हापुर (महाराष्ट्र)

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