भूख सबको लगती है
(कविता)
अगली सुबह फेंक गया कोई
पार्टी में बचे
सड़े-गले, जूठे भोजन के जख़ीरे को;
कुछ ही क्षण बाद
बीनने लगे उसे
खाने को कुछ
' छोटे-छोटे पाँव ';
बचपन, गटर के पास
मृत्यु का इंतजार कर रही थी ।
सामने गुर्रा रहा था 'कुत्ता'
फुटपाथ पर-
जैसे वह भी हिस्सेदार हो
' त्यज्य सामंती जलसे का '
भूख, गरीबी से भी भयावह होती है,
भूख सबको लगती है । "
-०-
बिलकुल समय सापेेक्ष है कविता! आप को बहुत बहुत बधाई है आदरणीय !
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