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Thursday, 23 April 2020

आग लगाकर चले गए (कविता) - शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

आग लगाकर चले गए
(कविता)
आए थे कुछ लोग, साँस के,
निर्वासन की, बस्ती में,
रुके नहीं संबंध, अरे हाँ !
आग लगाकर चले गए.

छोटा सा वह शहर,
शांत था, गुमसुम था,
श्वेत वस्त्र से ढँका,
प्राण का कुमकुम था,
आग और कुछ धुआँ, हवा थी,
अभिनंदन की, हस्ती में,
रुके नही आबंध, अरे हाँ !
आग लगाकर चले गए.

आँसू का अर्णोद,
आँख में सावन था,
ममता का उत्कंठ,
अमत्सर पावन था,
रीति कपाल-क्रिया की, चुप थी,
कर्म-धर्म की, दस्ती में,
रुके नही अनुबंध, अरे हाँ !
आग लगाकर चले गए.

यादों की वह, योग-
युक्ति, अभिलाषा थी,
जीवन की हर सूक्ति,
मुक्ति परिभाषा थी,
देह छोड़कर गई आत्मा,
अंग-अंग हैं, पस्ती में,
रुके नहीं पदबंध, अरे हाँ !
आग लगाकर चले गए.-
पता: 
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-


***
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