सब के हक़
(ग़ज़ल)
ज़िंदगी हर क़दम पे हारी हैतीर साधे खड़ा शिकारी है।
वक़्त बदला है कह रही दुनिया
*कितनी लाचार अब भी नारी है*
कौन तोड़ेगा इतनी ज़ंजीरें
यह मुसीबत ही सबसे भारी है।
जैसे चाहे हमें नचायेगा
यह ज़माना बड़ा मदारी है।
कैसे मन की ख़ुशी मनाऊँ मैं
देना होती जवाबदारी है।
उसको कैसे सनम भुलाऊंगी
मेरे सर पर जो ज़िम्मेदारी है।
औरतें सर उठा के चल पायें
जंग मेरी अभी ये जारी है।
'राज' यह सोच कर क़दम रखना
राह मुश्किल ज़रा हमारी है।पता--
राज बाला 'राज'
हिसार(हरियाणा)
हिसार(हरियाणा)
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