(कविता)
*8 मई २०२ ,महाराष्ट्र में रेल हादसे में प्रवासी मज़दूरों की मौत पर”*
तपती गर्मी में...
छोटे छोटे बच्चों को गोदी में दबाए,
घर पहुँचने की आस लगाए,
ज़िंदगी की गठरी सिर पर उठाए,
ये मज़दूर..पैदल चलने को मजबूर।
गाँव से आए थे शहर..,
ढाया करोंना ने क़हर..,
जब टूटने लगा हौसला,
किया घर जाने का फ़ैसला।
हालात ने छीन लिए मुँह के निवाले,
ज़िंदगी कर रब के हवाले।
चल दिए मौत से बच कर,
पसीने से लथपथ.
खा कर सूखी रोटी..चटनी से लथपथ
ललचा गया मन,आराम करने को,
हालात से थक कर।
सो गए रेल की पटरी को..
तकिया समझ कर।
शायद रोजी रोटी का सफ़र ,
था यही तक...।
यूँ तो बसें ट्रेनें सब बंद थी,
पर ज़िंदगी बदनसीब थी।
दौड़ती ट्रेन...जिससे ..
घर पहुँचने की उम्मीद थी,
सकूँन का सबब थी..इतने क़रीब थी।
समेट लिया पलक झपकते ही मौत ने,
गाँव पहुँचने से पहले ही...
गहरी नींद..सुला दिया इस सौत ने।
कैसी आइ ये भौर..?
पसरा ख़ामोशी का शोर..।
बिखरी रोटियाँ..इंसानी बोटियाँ।
मर्घट बनी पटरियाँ।
मिल गए मिट्टी में..
मंज़िल तय करते करते ।
सो गए चिर निद्रा में..
ज़िंदगी से लड़ते लड़ते।
ना कोई चीख़ा,ना चिल्लाया..
ज़िंदगी ने मौत से मिलाया।
सुबह बस रेल की पटरियाँ थी,
बिखरी रोटियाँ थी,
चिथडो में बंटी जिंदगियाँ थी।
परिवार इंतज़ार करता रहा..
पिता सोचता रहा..
बेटा आएगा..कमा के लाएगा,
बुढ़ापा कुछ आसान हो जाएगा।
कब सोचा था..ऐसा वक़्त भी आएगा,
ज़िंदगी पटरी पर लाने चले थे,
पटरी ही मौत का कारण बन जाएगा।
क्षत विक्षत शरीर....
पटरी पर बिखर गया,
बह चला लहू का समुन्दर,
उफ़्फ़..ये खोफ़नाख मंज़र,
ना कभी देखा,ना सुना,
मौत ने भी कैसा ये ताना बाना बुना।
टूट गई आशाए..
जिस्म एक गठरी में सिमट गया।
मिल गए मिट्टी में...
मंज़िल तय करते करते,
सो गए चिर निद्रा में ...,.
ज़िंदगी से लड़ते लड़ते।
संवेदनहीनता बरक़रार रही..
इंसानियत शर्मसार रही।
काश कुछ ऐसी नीतियाँ बनती,
जो इन ग़रीबों की सुनती।
ये मौतें इन नीतियों का नतीजा है..?
या किसी की जिम्मेदारी है ?
किसे दोष दें..?ऐसा लगता है..
संवेदनहीनता ही इनकी हत्यारी है।
-०-
पता
तपती गर्मी में...
छोटे छोटे बच्चों को गोदी में दबाए,
घर पहुँचने की आस लगाए,
ज़िंदगी की गठरी सिर पर उठाए,
ये मज़दूर..पैदल चलने को मजबूर।
गाँव से आए थे शहर..,
ढाया करोंना ने क़हर..,
जब टूटने लगा हौसला,
किया घर जाने का फ़ैसला।
हालात ने छीन लिए मुँह के निवाले,
ज़िंदगी कर रब के हवाले।
चल दिए मौत से बच कर,
पसीने से लथपथ.
खा कर सूखी रोटी..चटनी से लथपथ
ललचा गया मन,आराम करने को,
हालात से थक कर।
सो गए रेल की पटरी को..
तकिया समझ कर।
शायद रोजी रोटी का सफ़र ,
था यही तक...।
यूँ तो बसें ट्रेनें सब बंद थी,
पर ज़िंदगी बदनसीब थी।
दौड़ती ट्रेन...जिससे ..
घर पहुँचने की उम्मीद थी,
सकूँन का सबब थी..इतने क़रीब थी।
समेट लिया पलक झपकते ही मौत ने,
गाँव पहुँचने से पहले ही...
गहरी नींद..सुला दिया इस सौत ने।
कैसी आइ ये भौर..?
पसरा ख़ामोशी का शोर..।
बिखरी रोटियाँ..इंसानी बोटियाँ।
मर्घट बनी पटरियाँ।
मिल गए मिट्टी में..
मंज़िल तय करते करते ।
सो गए चिर निद्रा में..
ज़िंदगी से लड़ते लड़ते।
ना कोई चीख़ा,ना चिल्लाया..
ज़िंदगी ने मौत से मिलाया।
सुबह बस रेल की पटरियाँ थी,
बिखरी रोटियाँ थी,
चिथडो में बंटी जिंदगियाँ थी।
परिवार इंतज़ार करता रहा..
पिता सोचता रहा..
बेटा आएगा..कमा के लाएगा,
बुढ़ापा कुछ आसान हो जाएगा।
कब सोचा था..ऐसा वक़्त भी आएगा,
ज़िंदगी पटरी पर लाने चले थे,
पटरी ही मौत का कारण बन जाएगा।
क्षत विक्षत शरीर....
पटरी पर बिखर गया,
बह चला लहू का समुन्दर,
उफ़्फ़..ये खोफ़नाख मंज़र,
ना कभी देखा,ना सुना,
मौत ने भी कैसा ये ताना बाना बुना।
टूट गई आशाए..
जिस्म एक गठरी में सिमट गया।
मिल गए मिट्टी में...
मंज़िल तय करते करते,
सो गए चिर निद्रा में ...,.
ज़िंदगी से लड़ते लड़ते।
संवेदनहीनता बरक़रार रही..
इंसानियत शर्मसार रही।
काश कुछ ऐसी नीतियाँ बनती,
जो इन ग़रीबों की सुनती।
ये मौतें इन नीतियों का नतीजा है..?
या किसी की जिम्मेदारी है ?
किसे दोष दें..?ऐसा लगता है..
संवेदनहीनता ही इनकी हत्यारी है।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)