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Saturday, 21 December 2019

सुबह का भूला (लघुकथा) - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

सुबह का भूला
(लघुकथा)

"मैंने थोड़ी-सी शराब क्या पी ली, आप लोगों ने तो पूरा आसमान ही सिर पर उठा लिया। आप लोगों को क्या लगता है कि मैं दिन भर खाली-पीली घूमता रहता हूँ। बैलों की तरह हाथ ठेला खींच कर जैसे तैसे गृहस्थी की गाड़ी चला रहा हूँ। तुम लोगों का क्या है, दिन भर घर में बैठे रहते हो। कभी खुद काम कर के देखो, तो समझ में आए कि ये शराब मेरे लिए क्यों जरूरी है।" अधेड़ रामा अपनी माँ और पत्नी से बोला।
"ठीक है रामा। अब तुम घर में रहना। हम सास-बहू ही तुम्हारा हाथ ठेला खींचकर गृहस्थी चलाएँगी।" तंग आकर उसकी माँ ने कहा।
और सचमुच सास-बहू ने रामा का हाथ ठेला खींचना शुरू कर दिया।
अपनी सत्तर वर्षीया बूढ़ी माँ और अधेड़ उम्र की पत्नी को हाथ ठेला खींचते देख कर रामा का सारा नशा काफूर हो गया। उसकी आँखों के सामने बचपन से लेकर अब तक की माँ और पत्नी से जुड़ी घटनाएँ घूमने लगीं।
वह दौड़कर अपनी माँ के पास पहुँचा। उनके पैरों में गिरकर बोला, "माँ मुझे माफ कर दो। मैं कसम खाकर कहता हूँ कि अब कभी शराब को हाथ नहीं लगाऊँगा।"
माँ ने बेटे को सीने से लगा लिया। बोलीं, "सुबह का भूला अगर शाम को लौट आए, तो उसे भूला नहीं कहते।"
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पता: 
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर (छत्तीसगढ़)

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