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Tuesday, 7 January 2020

निशानी (लघुकथा) - गोविन्द शर्मा

निशानी
(लघुकथा)
वह मैले कपड़े पहने,छितराए बालोंवाला लड़का कई दिन से घर के दरवाजे पर खड़ा दिखाई दे रहा था। मैंने बाहर आकर डाँटा तो बोला- साहब, मैं भिखारी नहीं हूं। घर का खर्च चलाने के लिए कबाड़, पुरानी किताबें खरीदता हूं और आगे बेचता हूूँ। मुझे आपके पड़ोसियों ने बताया है कि आप लेखक हैं। आपके पास बहुत किताबें होती है। आप बेच सकते हैं। इसलिए.....।
मैं लेखक हूं। मेरी किताबें रद्दी वाले को बेचने लायक होती हैं? हो सकता है पड़ोसियों ने यह व्यंग्य में कहा हों पर उसके चेहरे पर ऐसे भाव नहीं थे।मैंने उसे भेज दिया। वह बार-बार आने लगा तो एक दिन मैंने किताबों का एक बंडल उसे बेच दिया। यह बच्चों की फटी-पुरानी किताबें थी।
दो दिन बाद वह फिर दरवाजे पर खड़ा था। मैंने उसे डाँटा कि इतनी जल्दी वह फिर पुरानी किताबें खरीदने आ गया? इस बार क्या कहा है मेरे पड़ोसियों ने?
किसी ने कुछ नहीं कहा साहब। मैं खुद ही आया हूं। कुछ खरीदने नहीं, यह किताब वापस करने। इस किताब पर किसी बच्चे की फोटो चिपकाई हुई है। कुछ लिखा हुआ भी है। लगता है यह आपके किसी बच्चे की निशानी है। इसे आप संभालकर रखना चाहेंगे।
उसकी बात से मुझे हैरानी हुई । कुछ अजीब भी लगी। गलियों में रद्दी खरीदने वाला यह बच्चा किसी की स्मृति के बारे में इतनी ऊँंची बात कर रहा है। वह किताब हाथ में लेते हुए मैंने पूछा- तुम्हारे घर में किस किस की निशानी जमा है। तुम निशानी के महत्त्व के बारे में क्या जानते हो?
वह बोला- ज्यादा तो नहीं, पर मेरे दादा-दादी मुझे अपने बेटे की निशानी कहते हैं। मेरे माता-पिता इस दुनिया में नहीं है।
-०-
गोविन्द शर्मा
संगरिया- हनुमानगढ़ (राजस्थान)

-०-
***
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2 comments:

  1. मानवीय सकारात्मक भावनाओं से परिपूर्ण सार्थक लघुकथा।

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