(कविता)
रोकिए पहर-पहरजल रहा शहर-शहर।
घिर रही घटा-घटा
देखिए कहर-कहर।
मन्दिरों के गर्भ में
आरती भी मर गयी।
मौन आयतें हुईं
फिर कुरान डर गयी।
देखिए कि देखिए
चीखती अज़ान है।
लाश बेकसूर की
रो रहा मसान है।
धर्म-धर्म चीखता
कौन ये यहाँ वहाँ।
तुम समहल के जाइए
इस डगर-डगर-डगर
रोकिए पहर-पहर
जल रहा शहर-शहर।
घिर रही घटा-घटा
देखिए कहर-कहर।
राम की रहीम की
कौन सुन रहा है अब।
सिर्फ राजनीति का
भौंन घुन रहा है अब।
भोले-भाले लोग सब
आ गये फरेब में।
देश आ गया है अब
नेताजी की जेब में।
लुट ले गये चमन।
रौंद दी कली-कली।
मतलबी जुबान ने
बो दिया ज़हर-ज़हर।
रोकिए पहर-पहर
जल रहा शहर-शहर।
घिर रही घटा-घटा
देखिए कहर-कहर।
अपने आप अपनी ही
बेच दी आजादियाँ।
नफ़रतों की आग में
जल गयीं हैं वादियाँ।
हर गली-गली-गली
खून बह रहा है अब।
भाई-भाई को भी भाई
कौन कह रहा है अब।
कलकलें चिनाब की
मौन होती जा रहीं।
रावी और सिन्धु भी
अब गयीं ठहर-ठहर
रोकिए पहर-पहर
जल रहा शहर-शहर।
घिर रही घटा-घटा
देखिए कहर-कहर।
-०-
बहुत सुंदर रचना...
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