शहर हो गये दूर गाँव से
(कविता)
बाग-बगीचे-क्यारी गुम।
आँगन में वो हँसती-खिलती
बच्चों की किलकारी गुम।
रिश्तों के इस बियाबान में
मौसी-चाची-दादी गुम।
मिसरी-सी कानों में घुलती
नानी की वो कहानी गुम।
होली की वो हँसी-ठिठोली
रंग-भरी पिचकारी गुम।
नीम तले की शाम-बैठकी
रिश्तों की फुलवारी गुम।
घर के बीच दीवार उठ गयी
सुख-दुःख का बँटवारा गुम।
क्या बैठें डायनिंग टेबल पर ?
पाँत लगी वो थाली गुम।
ताल-तलैया-नदी सूख गयी
लहरों की झलकारी गुम।
सावन के झूले-हिंडोले
चैता-पूर्बी-कजरी गुम।
दुल्हन विदा कार में होती
डोली कहार औ ' पालकी गुम।
बृहत् सिमटकर एकल हो गये
परिवारों की प्रणाली गुम।
मोबाईल - गूगल के युग में
हाथ लिखी वो पाती गुम।
पढ़-लिख हम विद्वान बन गये
घर-परिवार की थाती गुम।
भौतिकवाद की इस आँधी में
उजड़ी हर परिपाटी गुम।-0-
पता:
विजयानंद विजय
बक्सर (बिहार)
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बाह! बहुत सुन्दर कविता है आदरणीय ! आपको बहुत बहुत बधाई है।
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