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Thursday, 2 April 2020

शहर हो गये दूर गाँव से (कविता) - विजयानंद विजय

शहर हो गये दूर गाँव से
(कविता)
शहर हो गये दूर गाँव से
बाग-बगीचे-क्यारी गुम।

आँगन में वो हँसती-खिलती
बच्चों की किलकारी गुम।

रिश्तों के इस बियाबान में
मौसी-चाची-दादी गुम।

मिसरी-सी कानों में घुलती
नानी की वो कहानी गुम।

होली की वो हँसी-ठिठोली
रंग-भरी पिचकारी गुम।

नीम तले की शाम-बैठकी
रिश्तों की फुलवारी गुम।

घर के बीच दीवार उठ गयी
सुख-दुःख का बँटवारा गुम।

क्या बैठें डायनिंग टेबल पर ?
पाँत लगी वो थाली गुम।

ताल-तलैया-नदी सूख गयी
लहरों की झलकारी गुम।

सावन के झूले-हिंडोले
चैता-पूर्बी-कजरी गुम।

दुल्हन विदा कार में होती
डोली कहार औ ' पालकी गुम।

बृहत् सिमटकर एकल हो गये
परिवारों की प्रणाली गुम।

मोबाईल - गूगल के युग में
हाथ लिखी वो पाती गुम।

पढ़-लिख हम विद्वान बन गये
घर-परिवार की थाती गुम।

भौतिकवाद की इस आँधी में
उजड़ी हर परिपाटी गुम।-0-
पता:
विजयानंद विजय
बक्सर (बिहार)

-०-
***
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1 comment:

  1. बाह! बहुत सुन्दर कविता है आदरणीय ! आपको बहुत बहुत बधाई है।

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