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Thursday, 2 April 2020

कब तक? (लघुकथा) - ज्योत्स्ना ' कपिल'

कब तक?

(लघुकथा)
छोटे-छोटे बच्चे,दो वक़्त की रोटी जुटाने की मशक्कत,और बिटिया की जान पर मंडराता खतरा देखकर परमेसर सिहर उठा। अंततः उसने अपनी एक किडनी देकर बेटी के जीवन को बचाने का संकल्प कर लिया।

" तुम तो पहले ही अपनी एक किडनी निकलवा चुके हो,तो अब क्या मजाक करने आये हो यहाँ ?" डॉक्टर ने रुष्ट होकर कहा।

" जे का बोल रै हैं डागदर साब,हम भला काहे अपनी किटनी निकलवाएंगे। ऊ तो हमार बिटिया की जान पर बन आई है।छोटे-छोटे लरिका हैं ऊ के सो हमन नै सोची की एक किटनी उका दे दै।"

" पर तुम्हारी तो अब एक ही किडनी है, ये देखो ऑपरेशन के निशान भी हैं "

" अरे ऊ कौनौ किटनी न निकलवाई हमने।ऊ तो मुला नसबन्दी का आपरेसन हुआ था।" वह डॉक्टर की मूर्खता पर ठठाकर हँस पड़ा ।

" ऊ जा साल सूखा पड़ा था,तबहीं एक सिविर लगा था। सबका मुफत में नसबन्दी का आपरेसन करके हज्जार रुपैया ,एक कम्बल ,अउर इशट्टील का खाने का डब्बा दै रै थे। तबहिं हमन नै आपरेसन करवा के हज्जार रुपैय्या अपनी अन्टी में ....." कहते कहते वह रुक गया। और उसकी आँखें भय से फैल गईं।
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पता - 
ज्योत्स्ना ' कपिल' 
गाजियाबाद (उत्तरप्रदेश)

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