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Sunday 19 April 2020

मानवता (कविता) - श्रीमती राखी सिंह


मानवता

(कविता)
माँ का मानव पुतला, अब बदल गया तो,
देख मानवता ने भी चोला,अपना बदल लिया l
आज दिखे सभी लगे है, खुदगर्जी में तो
लगे है सबने जग से नाता, जैसे तोड़ लिया ll

बीवी बच्चों में उसका परिवार बना,
मातपिता को बोझा समझ लिया l
लाल बाल का पोषण है प्रधान बना ,
जनक बना कंगाली का आटा गिला ll

नासमझी में जिम्मेदारी ना वो समझा,
मर्यादा संस्कार मानवता को वो जैसे भूल गया l
दोनों को वृद्धाश्रम लेज़ा कर पहुंचाया,
बचपन कर प्यार जैसे वह भूल गया ll

नाता,रिस्ता, सम्म्मान व अपनापन, 
दिल से न जाने कहाँ छूमंतर सा दिखा l
विकशनशील बन रहा जहाँ आज पर,
मानवता धूमिल तार तार होता दिखा ll

आज समाज में समर्पण,आदर अनुशासन विहीन दिखे नाता
व्यस्त, तनाव में दिखते पर खुश होने का है चोला पहने
कहने को रिश्ते है पर पैसे मतलब का है नाता
नाजाने दिखावट का मुखड़ा आज की पीढ़ी है क्यों पहने
-०-
पता:
श्रीमती राखी सिंह
मुंबई (महाराष्ट्र)


-०-

***
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