(कविता)
संस्कृत मेरी जननी मैं बेटी हिंदी हूं।
भारत मां के भाल की, श्रृंगार की बिंदी हूं ।
भारत के जन-मन में आस्था सी बसी हूं।
पूरे विश्व को एक करने मैं चली हूँ।
ज्ञान की जुबान में कलम से ढली हूँ।
गुरु-ज्ञानियों के कुल में पली हूँ।
मैं भारत माता की बेटी हिंदी हूँ।
भेद-द्वेष को कोसों दूर भूली हूँ।
जो मिला मुझे प्यार से उसे गले मिली हूँ।
उदारता में, मैं महासागर सी गहरी हूँ।
जो पाता ज्ञान मुझ-से मैं नीले आकाश-सी फैली हूँ।
मैं भारत माता के भाल की प्यारी बिंदी हूँ।
सरसता के मुख की भाषा हिंदी हूँ।
मैं शब्द -शब्द का अर्थ लेकर जिंदी हूँ।
जो लिखती हूँ वही कहती हूँ।
जो बोलती हूँ वही तो लिखती हूँ।
मैं भारत माँ के भाल की श्रृंगार की बिंदी हूँ।
मैं भारत माता की प्यारी बेटी हिंदी हूँ।
सात समंदर पार कर भी जिन्दी हूँ।
भारत के गौरव की राष्ट्र भाषा हूँ।
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डॉ. कान्ति लाल यादव
(सामाजिक कार्यकर्ता)-०-
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