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Sunday, 10 November 2019

पलायन (पद्य-दोहे) - डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'


पलायन
(पद्य-दोहे )

गांव और खलिहान सब, रहते थे भरपूर।
घर घर में खुशियां भरी, पुष्प बिखेरे नूर।।

गरमी या बरसात हो, या सर्दी हेमंत।
चहल-पहल थी गांव में, सुनते वाणी संत।।

हुआ आज क्या अचानक, गांव हुए वीरान।
धरती बंजर है पड़ी, बाग खेत खलिहान।।

घरों में ताले हैं पड़े, आगन उगी है घास।
बंदर, जंगली-जीव सब, गांव बीच घर-पास।।

डर लगता एकांत में, रहना गांव के बीच।
राह भरी है झाड़ियां, लेते वसन हैं खींच।।

पलायन घर से हुआ, गए शहर की ओर।
शुद्ध हवा जल छोड़कर, स्वच्छ, स्वस्थ शुभ भोर।।

शहरों की आलस भरी, मस्ती में सुख ढूंढ।
प्रदूषित जल-वायु में, रोगी तन आरूढ़।।

दशा आज यह देखिए, चलवाणी में खोय।
सुध-बुध की नहीं होश है, व्हाट्सएप के बस होय।।

आगे जाने राम ही, क्या होगा परिणाम।
पर्यावरण की दुर्दशा, अब जीवन के नाम।।

शहरों का यह छल भरा, आकर्षण ले जाय।
गांव उजाड़े लोग सब, निज घर छोड़े जांय।।
-०-
डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'
अध्यापक एवं लेखक
अल्मोड़ा, उत्तराखंड, भारत।


***
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