(कविता)
लोकडाउन में भी....
घर से बाहर निकलने को..
मचल रहा मन।
सोच रही हूँ...
करूँ कुछ यत्न ।
थोड़ा इधर उधर टहल लू..
तो क्या होगा..?
इसमें किसी का क्या बिगड़ेगा?
देखूँ तो सही..
बाहर क्या हाल है..?
सब कुछ वैसा ही है,
या कुछ बदलाव है..?
निकल पड़ी....यूँ ही आस पास,
लगा कर मुँह पर मास्क।
शायद रंगीन हो गया हो पार्क,
लोग घूम रहे हों आस पास।
पर ये क्या..?यहाँ कोई नहीं आता?
सोच रही थी,लोग घूम रहे होंगे,
चर्चा कर रहे होंगे।
संवाद कम..विवाद ज़्यादा चल रहे होंगे।
पर कोई नहीं दिया दिखाई....
बस मैं थी...ओर मेरी तन्हाई।
मैं बड़बड़ाई...डरपोक कहीं के..?
सब दुबके बैठें हो...?मुँह छिपा के।
फिर सुनाई दिए..
पेड़ों पर पत्ते फड़फड़ाते,
दीवारों पर सूचनाओं के बोर्ड ,
मुँह चढ़ाते..।
समझ गई...सब क़ैद हैं,
नज़र बंद हैं..।
पुलिस पहरा दे रही...
बस उन्हीं के होसले बुलंद हैं।
ना चोरी का डर...ना डकैती का,
बस हर तरफ़ मौत का साया..
ये कैसा समय आया..?
पर इस मानव मन की भी कोई थाह नहीं,
ये मेरा पागलपन है....?
या मुझे अपनी अपनो की परवाह नहीं?
फिर झाँका मैंने मोहल्ले में...सोचा..,
किसी सहेली से ही मिल आऊँ।
बोर हो रही हूँ..,
थोड़ी गप शप लड़ा आऊँ.।
ज्यों ही गली में निकली,
सहेली भी दिखी।
उसने छत से ही हाथ हिलाया,
पर अंदर नहीं बुलाया।
मुझे थोड़ा ग़ुस्सा भी आया।
सोच रही थी...,
ये तो मेरी अन्तरंग सहेली थी..?
फिर ये कैसी पहेली थी..?
ये तो रोज़ मिलने आती थी,
मेरे बिना कहाँ रह पाती थी..?
पंचतत्व बना ये तन..
उसमें इक अशान्त सा..अधीर सा मन।
ज़िंदगी तुम भी कितनी अजीब हो,
कभी ख़्वाब सी,कभी नापाक सी
कभी दूर, कभी इतने नज़दीक हो।
ना जाने कब किस राह चल दो,
जैसा विचारो .. उसमें ढाल दो।
ना रुकती हो, ना सुनती हो।
बस सपने बुनती हो ।
फिर सोचा...,
मंदिर ही हो आऊँ..।
भगवान को ही ढोक लगा आऊँ।
निकल पड़ी मंदिर की राह पर,
पर ये क्या...?कोई नहीं दिखा यहाँ पर।
मंदिर में भी ताले जड़े हैं।
भगवान भी कोरंटाइन हो गए है?
क्या ये विषाणु इतना ख़तरनाक है..?
जो भगवान भी इससे डरे हैं..?
फिर मुझे समझ आया,
मैंने अपने आप को समझाया।
लौट जा अपने घर..
मत बन इतनी निडर,
कुछ रचनात्मक काम कर।
कुछ लिख.., कुछ पढ़।
ओर नहीं तो कुछ कवितायें ही गढ़।
भले ही सब परेशान हैं..,
पर जान है..तो जहाँन है।
अपना घर....अति हितकारी,
घर मंदिर.....बाहर बीमारी।
-०-
पता
घर से बाहर निकलने को..
मचल रहा मन।
सोच रही हूँ...
करूँ कुछ यत्न ।
थोड़ा इधर उधर टहल लू..
तो क्या होगा..?
इसमें किसी का क्या बिगड़ेगा?
देखूँ तो सही..
बाहर क्या हाल है..?
सब कुछ वैसा ही है,
या कुछ बदलाव है..?
निकल पड़ी....यूँ ही आस पास,
लगा कर मुँह पर मास्क।
शायद रंगीन हो गया हो पार्क,
लोग घूम रहे हों आस पास।
पर ये क्या..?यहाँ कोई नहीं आता?
सोच रही थी,लोग घूम रहे होंगे,
चर्चा कर रहे होंगे।
संवाद कम..विवाद ज़्यादा चल रहे होंगे।
पर कोई नहीं दिया दिखाई....
बस मैं थी...ओर मेरी तन्हाई।
मैं बड़बड़ाई...डरपोक कहीं के..?
सब दुबके बैठें हो...?मुँह छिपा के।
फिर सुनाई दिए..
पेड़ों पर पत्ते फड़फड़ाते,
दीवारों पर सूचनाओं के बोर्ड ,
मुँह चढ़ाते..।
समझ गई...सब क़ैद हैं,
नज़र बंद हैं..।
पुलिस पहरा दे रही...
बस उन्हीं के होसले बुलंद हैं।
ना चोरी का डर...ना डकैती का,
बस हर तरफ़ मौत का साया..
ये कैसा समय आया..?
पर इस मानव मन की भी कोई थाह नहीं,
ये मेरा पागलपन है....?
या मुझे अपनी अपनो की परवाह नहीं?
फिर झाँका मैंने मोहल्ले में...सोचा..,
किसी सहेली से ही मिल आऊँ।
बोर हो रही हूँ..,
थोड़ी गप शप लड़ा आऊँ.।
ज्यों ही गली में निकली,
सहेली भी दिखी।
उसने छत से ही हाथ हिलाया,
पर अंदर नहीं बुलाया।
मुझे थोड़ा ग़ुस्सा भी आया।
सोच रही थी...,
ये तो मेरी अन्तरंग सहेली थी..?
फिर ये कैसी पहेली थी..?
ये तो रोज़ मिलने आती थी,
मेरे बिना कहाँ रह पाती थी..?
पंचतत्व बना ये तन..
उसमें इक अशान्त सा..अधीर सा मन।
ज़िंदगी तुम भी कितनी अजीब हो,
कभी ख़्वाब सी,कभी नापाक सी
कभी दूर, कभी इतने नज़दीक हो।
ना जाने कब किस राह चल दो,
जैसा विचारो .. उसमें ढाल दो।
ना रुकती हो, ना सुनती हो।
बस सपने बुनती हो ।
फिर सोचा...,
मंदिर ही हो आऊँ..।
भगवान को ही ढोक लगा आऊँ।
निकल पड़ी मंदिर की राह पर,
पर ये क्या...?कोई नहीं दिखा यहाँ पर।
मंदिर में भी ताले जड़े हैं।
भगवान भी कोरंटाइन हो गए है?
क्या ये विषाणु इतना ख़तरनाक है..?
जो भगवान भी इससे डरे हैं..?
फिर मुझे समझ आया,
मैंने अपने आप को समझाया।
लौट जा अपने घर..
मत बन इतनी निडर,
कुछ रचनात्मक काम कर।
कुछ लिख.., कुछ पढ़।
ओर नहीं तो कुछ कवितायें ही गढ़।
भले ही सब परेशान हैं..,
पर जान है..तो जहाँन है।
अपना घर....अति हितकारी,
घर मंदिर.....बाहर बीमारी।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
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