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Tuesday, 4 August 2020

पगली (कविता) - दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'

पगली
(कविता)
मैं पगली हूं
लोग मुझे पगली कहते हैं
पर मुझे पगली बनाया कौन ?
इसी समाज के दरिंदों ने
मेरी जवानी और
मेरे जिस्म के लालच में
दरिंदों ने मेरे साथ
क्या-क्या ना जुल्म किया
मेरा शील हरण किया
मेरे पति को मार डाला
मेरे बच्चों का वध किया
गांव के दबंगों ने
मेरी जमीन हड़प ली
मेरे घर जला दिए
रहने का ठिकाना नहीं
खाने को दाना नहीं
आप ही बताइए
इतना सबकुछ होने के बाद
कोई कैसे  रह सकता है सहज
उसे तो पागल होना ही है
फिर भी मैं सामान्य रही
लेकिन जब मैं
फुटपाथ पर नहाती थी
तो हर आने जाने वालों की
गिद्ध दृष्टि
मेरे मांसल जिस्म पर
अटक जाती थी
मुझे लगता था
सब मिलकर मुझे चारों तरफ से
सैकड़ों चील-गिद्ध  की भांति
मेरे बदन को नोच-नोच
कर खा रहे हैं
पीड़ा जब
असहनीय हो गई
मैंने नहाना छोड़ दिया
बाल सवारना छोड़ दिया
फटे चिथड़े पहनने  लगी
बन गई भूतनी की तरह
बच्चे पत्थर फेंकने लगे
और मैं बन गई पगली
सब कहने लगे पगली आई
पगली आई पगली आई 
-०-
पता: 
दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
-०-



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