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Monday 3 August 2020

रक्षाबंधन (कविता) - डॉ. नीलम खरे


रक्षाबंधन
(कविता)
भावों का है मेला,मन चहके ,महके सावन।
लगता सबको सुखकर, प्रिय, रक्षाबंधन ।।

अहसासों की बेला,प्रीतातुर यह बंधन
नेह पल्लवित होता,उल्लासित  जीवन
कजरी,झूले,मेले,टिकुली,चटख रंग की मेंहदी
सावन का ये पर्व अनूठा,खुश भाई-दीदी

शुभ-मंगलमय गीत,पर्व का अभिनंदन ।
लगता सबको सुखकर, प्रिय, रक्षाबंधन ।।

बहना का दिल मंदिर,अंतर्मन गीता
 वीरा भी भावों में ,कोय नहीं रीता
गली,मोहल्ले,सारी बस्ती में खुशियां
महल,झोंपड़ी खुश,हर इक की खुश दुनिया

बेटी आई पीहर से,हर्षित आँगन ।
लगता सबको सुखकर, प्रिय, रक्षाबंधन ।।

बचपन की मधुरिम यादों का,यह उपवन
पावन और निष्कपट है रक्षाबंधन
धागा कच्चा,पर पक्का, ना यह टूटे
धर्म,नीति कहती है,साथ नहीं छूटे

कर पर राखी,माथे टीका, है वंदन ।
लगता सबको सुखकर, प्रिय, रक्षाबंधन ।।
-०-
डॉ. नीलम खरे
व्दारा- प्रो.शरद नारायण खरे, 
मंडला (मध्यप्रदेश)


***
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