जाड़े की धूप
(कविता)
कँपकपाती सर्दियों में ,धूप जाड़े की लुभाई ।
रौशनी बिखरी हवा में ,रश्मियां रवि की सुहाई ।
थरथराता था बदन जब ,शीत झोंके चल रहे थे ।
शूल सी उनकी चुभन में ,रात दिन बस ढल रहे थे ।
वो दिसम्बर का महीना ,ओस में अवनी नहाई ।
रौशनी बिखरी हवा में ,रश्मियां रवि की सुहाई ।
किन्तु बर्फीले दिनों में ,पीर हृद की सह रहा मन ।
सर्दियां मुझको सताएं ,क्यों अकेले रह रहा मन ।
शर्म से तब लजलजाती इक दुल्हन सी धूप आयी ।
रौशनी बिखरी हवा में ,रश्मियां रवि की सुहाई ।
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