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Monday, 17 August 2020

वीरांगना के जज्बात (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

वीरांगना के जज्बात
(कविता)
मेरे दिल की धड़कन थे तुम,
तेरे दिल मैं धड़क रही थी।
जीवन वहाँ थमा था मेरा,
मेरी दुनिया पलट गई थी।
ओढ़ तिरंगा जब तुम आए,
लिपट गई मैं,सिसक पड़ी थी।
देह तुम्हारी बिछड़ गई पर,
अंदर इक आवाज़ सुनी थी।
आँसू पोंछ लिए फिर मैंने,
दर्द को अंदर जज़्ब लिया।
दुख के बादल को समेट कर,
आसमान में दफ़्न कर दिया।
साथ तुम्हारा छूट गया पर,
क़िस्मत मेरी रूठ गई पर।
रूठा भाग्य मनाने निकली,
सपने साथ तुम्हारे लेकर।
यादों का इक सिरा थाम कर,
नए सिरे से खड़ी हुई हूँ।
याद तेरी बन गई सहारा,
नई राह पर निकल रही हूँ।
धैर्य नहीं खोया है मैंने,
समझा नहीं अभागन हूँ मैं,
मेरा सिंधूर है भारत माता,
रहूँगी सदा सुहागिन ही मैं।
जब भी कोई सपना टूटा,
मेरी आँखे भी बरसी है।
मैं भी ऐसे ही तड़पी ज्यों ,
बिन पानी मछली तड़पी है।
अंदर ग़म है, आँखे नम हैं,
पर रुकने की बात नहीं है,
राष्ट्र पर्व पर बहने वाला,
ये कोरा जज़्बात नहीं है।
वायू सेना का बन हिस्सा,
सपनो को पूरा कर लूँगी,
रही अधूरी कथा हमारी,
उसको लिख पूरा कर दूँगी।
-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)
-0-


***
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