इस बार दीवाली पर
(लघुकथा)
"अंजली! आ गई तू, कैसी है ? और घर में सब ठीक तो है " मेधा ने पॉर्च के बेंच पर आकर बैठी अंजलि से पूछा।
"हां आंटी जी...... सब ठीक है। पर अब केवल छह घर ही हैं काम के, तो तंगी रहती ही है।" अंजलि ने उदासी से कहा।
अंजलि मेधा के घर डेढ़ साल से काम कर रही थी, जरूरत पड़ने पर उसके चार साल के बेटे को कभी संभाल भी लेती थी। पर लॉक डाउन होने के बाद मेधा को उसे काम पर नहीं आने को कहना पड़ा।
"अंजलि, मैं सुरक्षा कारणों से तुम्हें अभी काम पर नहीं बुला सकती, मैं स्वयं कर रही हूं । बस, दीवाली पर तुम तीनों भाई बहन के लिए नए कपड़े और मिठाई के लिए पैसे देने ही बुलाया था।
"लेकिन आंटी जी, आपने लॉकडाउन में भी दो महीने की तनख्वाह बिना काम की दी थी । अब यह और.... अच्छा नहीं लग रहा। बहुत सारे लोगों ने तो सफाई में निकले पुराने कपड़े और बेकार सामान दिए हैं जिसे हमारे एक कमरे के घर में रखने की जगह भी नहीं है।" अंजलि ने दुख से कहा।
"कोई बात नहीं बेटा, मुश्किल वक्त है सावधानी से निकल ही जाएगा, यह लो पकड़ो। मेधा ने प्यार से बेग पकड़ा दिया।
इस बार सबके लिए सोचना है किसी के भी घर सूनी या फीकी दिवाली न मने।
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बाह! हार्दिक बधाई है मैम! सुन्दर समसमायिक लघु कथा के लिये।
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