कल फिर
(कविता)
कल फिर
खिलेगी धूप
झाँकती सी लगेगी दरो दीवारों से
प्राची से फूटता भिन्नसार,
बढ़ेगा धीरे-धीरे
धरा से मिलने।
कल फिर
चहकेगी चिड़ियाँ पहली ही किरण के साथ।
बाहर निकल नीड़ से
आशा और विश्वास के पंख फैला
उड़ने खुले गगन में।
कल फिर
खिलेगे कुसुम खोल कर
गाँठे अपनी,
पूरब की और मुँह किये
फैलाते सौरभ,
महकेगी धरा फिर से।
कल फिर
कलरव की मधुर ध्वनियां सुनाई पड़ेगी।
खगवृंद,हरते से लगेगे वेदना
एक दूजे की,
भूल कर पुरानी कटुता।
कल फिर
झूकेगे वृक्ष फलों के बोझ से,
टहनियों तक लदे,
बाँटने अपना मधु रस,
हर पंथी को।
कल फिर
बहेगी सरिता कल कल निर्मल सी
अविराम,अविरल,
बुझाने को पिपासा
तोड़कर तटबंध ईर्ष्या के।
कल फिर
सजेगी चौपाल,
घर के बाहर के पीपल के नीचे
पूछने को हाल चाल पास पड़ोस का,
उड़ाकर धुआँ कपट का
चिलम भर।
कल फिर
लहलहायगी फसलें भावों की
अपनत्व की धूप पा
भर कर प्रेम के क्षीर से।
फिर से।
कल फिर
बढेगे हाथ उस ओर
देने सहारा
लडखड़ाते पैरों को,
हटाकर बैसाखियाँ बनावटी ।
कल फिर
मिटेगा अँधेरा दिलों से
जलेगे दीये मिट्टी के
हर घर की चौखट पर
एक बार फिर से।
-०-
पता:
बहुत खूब रचना
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