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Monday, 2 December 2019

रिश्तों की मर्यादा (आलेख) - अलका 'सोनी'

रिश्तों की मर्यादा
(आलेख)
सामाजिक व्यवस्था जिन तानो-बानों से गुंथी है, उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण 'रिश्ते' हैं। हर रिश्ते का अपना नाम व उससे जुड़ी जिम्मेदारियां होती हैं। स्वस्थ रिश्ते की शुरूआत ही मान-सम्मान और मर्यादा से होती है। किसी व्यक्ति का सलीके से किया गया व्यवहार ही हमें उसकी ओर खींचता है। रिश्तों के मजबूत और हेल्दी बने रहने के लिए उनका मर्यादा में रहना अनिवार्य है। जब हम अपनी हद पार करने लगते हैं तो रिश्तों में दरार आने लगती है।
मनोविज्ञान कहता है कि रिश्तों में मर्यादा का मतलब किसी को बाध्य करना या बंदिशें लगाना नहीं है। वरन स्वयं को व अपने रिश्तों को सुरक्षित रखना है। अर्थात मर्यादित रहना हर रिश्ते की कामयाबी का मूलमंत्र है।
प्रकृति का दिया सबसे अनमोल उपहार है 'रिश्ता'। फिर चाहे वो पति-पत्नी का हो या माता-पिता का। हर रिश्ता सुनहरा और अनमोल होता है। रिश्तों की अहमियत दो लोगों की आपसी समझदारी और सामंजस्य पर टिका होता है अगर एक पक्ष भी कमजोर हुआ तो उसका टिकना मुश्किल हो जाता है। इसे निभाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत की आवश्यकता नहीं होती। जरूरत होती है तो सिर्फ आदर, सम्मान और विश्वास की। एक -दूसरे से कुछ छिपाने से मनमुटाव बढ़ता है। आज रिश्तों की खोती मर्यादा के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? आधुनिक जीवन-शैली, सर्वसुलभ इंटरनेट सेवाएं ,सिनेमा या फिर स्वयं मनुष्य को ?? 
मेरा मानना है कि केवल किसी एक को दोषित ठहराना गलत है। इसके लिए बहुत से घटक जिम्मेदार हैं। मनुष्य एक विचारशील और चेतनायुक्त प्राणी है। उसे ज्ञात होने चाहिए कि वह क्या कर रहा है? क्यों कर रहा है?उसकी हरकतों का उसके परिवार पर क्या असर पड़ सकता है?? पूर्ण मर्यादित इंसान ही परिवार एवम समाज में सम्मानित जीवन व्यतीत करता है। अधिक बहस करना, आलोचनाएं या चापलूसी करना, किसी को प्रताड़ित करना भी मर्यादा भंग की श्रेणी में आता है। जो व्यक्ति को अव्यवहारिक सिद्ध करते हैं। आचरण की मर्यादा केवल चरित्र हीनता से ही भंग नहीं होती, अपितु झूठ बोलने, बुराई का साथ देने,उधार लेने, नशा करने, जुआ खेलने से भी भंग होती है। नशा करने के बाद व्यक्ति को किसी बात का होश नहीं रहता। वह पवित्र से पवित्र रिश्ते को भी भंग कर देता है। 
रिश्ता कितना भी प्रिय क्यों न हो, निजी कार्यों में बिना अनुमति दखल देना अनुचित माना जाता है। बुरे वक्त पर रिश्ते सहायक होते हैं, किंतु रिश्तों से नित्य सहायता की अपेक्षा करना गलत है। समाज में पारिवारिक रिश्तों के अतिरिक्त मित्रता का रिश्ता भी होता है, जो कभी कभी पारिवारिक रिश्तों से भी बढ़कर हो जाता है। यह एक वैचारिक सम्बन्ध है, किंतु कितना भी प्रिय मित्र हो मर्यादा लांघने के बाद वह भी अप्रिय लगने लगता है।
लोभ ,मोह, काम, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, घृणा, प्रेम ,इत्यादि कोई भी विषय हो। जब तक मर्यादा में हो तबतक ही सही है अन्यथा हानिकारक हो जाते हैं। जैसे अग्नि, जल, वायु संसार को जीवन प्रदान करते हैं किंतु मर्यादा की रेखा लांघते ही प्रलयंकारी बन जाते हैं।जिसका परिणाम सिर्फ तबाही होता है।
-०-
अलका 'सोनी'
मधुपुर (झारखंड)




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अजनबी चहरे (कविता) - नेहा शर्मा


अजनबी चहरे
(कविता)
फुटपाथ पर बैठे
वे अजनबी चेहरें
लाचार और बेबस
नजर आते हैं
नन्ही आंखों के सपने
दूर कहीं खो जाते हैं
आशान्वित निगाहों से
हर राहगीर को वे ताकते हैं
पेट की भूख के लिए
बार-बार हाथ फैलाते हैं
गर्म लू के थपेड़ों से
नन्हा बचपन झुलस जाता है
नंगे पैरों के पदचिन्हों से
खिलता पुष्प सिमट जाता है
कुछ पैसों व रुपयों के लिए
घंटोंतक वे
लोगों के सामने गिड़गिड़ाते हैं
लेकिन दुराचार व कटु वचनों से
हरबार
अपमानित वे हो जाते हैं।।-०-
नेहा शर्मा ©®
अलवर (राजस्थान)


-०-


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जीवन साथी (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



जीवन साथी
                (कविता)
जीवन साथी तेरे बिन
ये दुनिया दुनिया नही लगती
जब तक हो ना दो चार बातें
ये ज़िन्दगी बढिया नही लगती

चाहे हो तोहफ़े का मामला
या घूमने फिरने का माजरा
मै उत्तर तो तू है दक्षिण
मै दस तो तू नंबर ग्यारह

गर मुझको जाना हो पीहर
रूक जाऊँ तंरी हँसी देखकर
क्यों इतना ख़ुश हो जाते हो
मुझे अपनी ससुराल भेजकर

जब होती ख़र्चे की बात
बंद हो जाती तेरी ज़ुबान
दुनिया भर का ख़र्च तो करते
मेरे वक़्त कमान कस जाती

कम करो तुम अपना ख़र्चा
कह के मेरा जीना दूभर किया
और मैंने तेरा कहा मान
एैसा ही जीवन जी लिया

बात आये जब बच्चों की
उनकी परवरिश मुझे है करना
मै तो पैसा दे देता हुँ
अब आगे सब तुम्ही को करना

जब बच्चा कुछ अच्छा करता
बच्चे का पापा नाम कमाता
और जब हो कुछ उलटा सीधा
सारा इल्ज़ाम बस माँ पर आये

वाह मेरे प्यारे जीवन साथी
हम तुम दोनो एैसे दीपक बाती
साथ तो चलते रहते हरदम
पर राह कभी भी मिल नही पाती
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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स्वछता के दोहे (दोहा) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


स्वछता के दोहे
(दोहा)

बिखरी हो जब गंदगी,तब विकास अवरुध्द !
घट जाती संपन्नता,बरकत होती क्रुध्द !!

वे मानुष तो मूर्ख हैं,करें शौच मैदान !
जो अंचल गंदा करें,पकड़ो उनके कान !!

धन्य वही जो स्वच्छता, को देता आयाम !
सुलभ केंद्र अब बन गया,जैसे तीरथ धाम !!

फलीभूत हो स्वच्छता,कर देती सम्पन्न !
जहॉं फैलती गंदगी,नर हो वहां विपन्न !!

बनो स्वच्छता दूत तुम,करो जागरण ख़ूब !
नवल चेतना की "शरद", उगे निरंतर दूब !!

अंधकार पलता वहॉं,जहॉं स्वच्छता लोप !
जागे सारा देश अब,हो विलुप्त सब कोप !!

मन स्वच्छ होगा तभी,जब स्वच्छ परिवेश !
नव स्वच्छता रच रही,नव समाज,नव देश !!

है स्वच्छता सोच इक,शौचालय अभियान !
शौचालय हर घर बने,तब बहुओं का मान !!

शौचालय में सोच हो,कूड़ा कूड़ादान !
तन-मन रखकर स्वच्छ हम,रच दें नवल जहान !

जीवन में आनंद तब,कहीं नहीं हो मैल !
रहें स्वच्छ,दमकें सदा,गलियां,सड़कें,गैल !!

सभी जगह हो स्वच्छता,तो सब कुछ आसान !
यही आज कहता "शरद",है स्वच्छता मान !!-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मप्र)
-०-

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बिहारीपन में रँगी दुनिया (आलेख) - डॉ अवधेश कुमार अवध

बिहारीपन में रँगी दुनिया
(आलेख)
अंग्रेजों द्वारा भारत को पर्वों की भूमि कहा जाना आज भी उतना ही प्रासंगिक है। भारत की आत्मा धर्म पर आधारित है जिसमें नैतिकता, शुचिता और परोपकार भी भावना कूट कूटकर भरी है। हजार वर्षों के विदेशी दमनकारी कुचक्र के बावजूद भी हमारी पावन वसुधा का मूल प्राण अक्षुण्ण है। इतना असर जरूर हुआ है कि विकास के चकाचौध में कुछ पर्व आधुनिकता एवं प्रदर्शन के रंग में रँग गए हैं। होली, दशहरा, दिवाली, लोहड़ी, बिहू, ईद व क्रिसमस साल दर साल आधुनिक पथ पर सरपट दौड़ रहे हैं। इन बहुतायत त्यौहारों की भीड़भाड़ में बिहारी माटी में उपजा छठ पर्व आज भी अपनी पवित्रता पर कायम है।

छठ पर्व जो पवित्र षष्ठी तिथि को सूर्य उपासना पर आधारित है, बहुत प्राचीन एवं वैज्ञानिक है। कई पुराण, रामायण और महाभारत में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है जो कार्तिक शुक्ल पक्ष की तृतीया से लेकर सप्तमी तक पंच दिवसीय सबसे बड़ा हिंदू पर्व है। विज्ञान सिद्ध है सूर्य में निहित असीम सकारात्मक ऊर्जा जिससे सचराचर क्रियान्वित है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में सूर्य - रश्मियों की प्रवणता का प्रभाव शरीर के लिए अनमोल स्वास्थ्यदायक है। त्वचा सहित शरीर के सकल परमाणु ज्योतिर्मय हो जाते हैं, ऊर्जा से भर जाते हैं। लालमलाल फूल और फल जो मौसमी होते हैं, का सेवन अत्यन्त लाभप्रद है। नदी या सरोवर में कमर तक जल निमग्न होकर घंटों बिताना योग, भक्ति और एकाग्रता से ओत प्रोत होता है।

यह त्यौहार नारी की पूर्ण श्रद्धा - भक्ति पर केन्द्रित है जिसमें पुरुष की भूमिका सहायक के रूप में होती है। बिना मूर्ति और पांडित्य - कर्मकांड के बिना घरेलू और आसपास की वस्तुओं से इस पर्व को मनाया जाता है। इसमें आर्थिक और जातीय स्तरीकरण परिलक्षित न होकर समानता एवं समरसता का भाव निहित है। बाजारू तामझाम से यह सर्वथा पृथक है। पर्यावरणविदों ने इसको प्रकृति के सर्वथा अनुकूल माना है। मानना भी चाहिए क्योंकि यह प्रकृति के विभिन्न उपादानों के संरक्षण पर आधारित है। नदी- सरोवरों की सफाई तथा फूल, फल, फसल और अन्यान्य वनस्पतियों की सुरक्षा और संरक्षण पर जोर देता है।

पूर्ण बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की भोजपूरी- मैथिली माटी से सदियों पहले उपजा यह पावन पर्व चहुँओर बढ़ रहा है। इस पर्व पर गाये जाने वाले गीत सूर्य से गुहार का भाव लिए हुए अत्यन्त कर्णप्रिय होते हैं। अब न केवल भारत के समस्त राज्यों में बल्कि वैश्विक स्तर पर इस त्यौहार को मनाया जाने लगा है। आने वाले समय में यह दुनिया का सबसे लोकप्रिय और व्यापक पर्व होने वाला है। सर्वाधिक प्रसन्नता की बात यह है कि इसको मनाने का विधि - विधान सर्वत्र एक जैसा है। अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए न केवल हिंदू बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी इसके प्रति नतमस्तक हैं। डूबते और उगते सूर्य की उपासना का यह पर्व दुनिया को बहुत व्यापक और सकारात्मक संदेश देता है। पाँच दिनों के लिए दुनिया अपने राजनीतिक हदों को तोड़कर बिहारीपन में रँग गई है, कहना अतिशयोक्ति न होगा।
-०-
डॉ अवधेश कुमार अवध
गुवाहाटी(असम)
-०-


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