
चंडीगढ़

तोहफा
(लघुकथा)
"मैं उसे बैठे-बैठे नहीं खिला सकती...! कह दो बुढ़िया कहीं चली जाए।"
" कैसी बातें करती हो क्रांति ! मां कहीं चली जाएगी तो लोग क्या सोचेंगे? जयदेव ने कहा।"
" आप नहीं कह सकते तो मैं ही कह देती हूं ।" कहती हुई क्रांति अपनी सास के कमरे में गई और बोली-" कल शाम को हम लोग हरिद्वार कुंभ मेला जा रहे हैं, तब तक आपको कल जयदेव शांति दीदी के घर छोड़ देगा। हमें आने में विलम्ब हो सकता है ,जब तक आपको लेने नहीं आएंगे तब तक वहीं रहिए। आखिर शांति भी तो तुम्हारी संतान है उसे भी सेवा का अवसर मिलना चाहिए।"
मां ने अपने बेटे- बहू के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाई और बोली-" मेरी तबीयत ठीक नहीं है बेटा ,चल फिर नहीं पाती हूं। इस उम्र में कहीं नहीं जाऊंगी। मैं तो यहीं मरूंगी।"
क्रांति ने जयदेव का नाकोदम कर दिया।अंतत: बूढ़ी मां को जयदेव उनकी बेटी शांति के यहां छोड़ आये। शांति तो गदगद हो गई मानो उन्हें तो देवी मां मिल गई ।वह मां की अंतिम सेवा समझ कर तन मन धन से करने लगी । बस , दो दिन ही हुए थे। सरकार की तरफ से नोटिस आई वृद्धों के लिए वृद्धा पेंशन दिया जाएगा और कमरा एवं शौचालय का निर्माण किया जाएगा। इसके लिए वृद्धों को आवेदन देना है।
क्रांति बोली- "पता नहीं बुढ़िया कब मर जाएगी! उन्हें तुरंत ही बुला लाइए नहीं तो ,कमरा और शौचालय नहीं बन पाएगा । वृद्धा पेंशन भी हाथ से निकल जायेगा।"
जयदेव ने फौरन अपनी मां को लिवा लाया।वृद्धा मां की साइन से कुछ ही दिनों में कमरा एवं शौचालय तैयार हो गया। निर्मित कमरा का उद्घाटन भी कर नहीं पाई थी, बीच में ही बुढ़ी मां चल बसी।
बहू के मुख से आवाज निकली "अच्छा हुआ बुढ़िया अब मरी । दो माह पहले मर जाती तो कमरा भी नहीं नसीब होता।"
अंतिम संस्कार में ले जाने के लिए मां की अर्थी उठाई तो मां के सिरहाने पर एक पत्र मिला। जिसमें लिखा था... प्रिय बेटा जयदेव! तुम्हारे बाप के नाम की कुल संपत्ति उनके परलोक सिधारने के बाद वह सम्पत्ति तुम्हें स्वत:मिल गई ,पर मेरे नाम पर कुछ भी नहीं था ,जो तुम्हें दे सकूं इस दुनिया से विदा लेते समय मैं तुम्हें एक तोहफा कमरा एवं शौचालय दे रही हूं। पर हां,ध्यान रखना कि भगवान ऐसा ना चाहे कि तुम्हारे बेटे बहू तुमसे भी ऐसी धारणा रखें जैसे कि तुम मेरे लिए रखे थे... कमरा एवं शौचालय। पत्र पढ़कर जयदेव एवं क्रांति फफककर रो पड़े ।
आग में तपकर, सोना कुंदन का रूप लेता है
संघर्ष के बल पर ही सफलता हाथ लगती है।
दीवा - स्वप्न है बेकार
पुरुषार्थ को बनाए हथियार
लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर,
अपने सपनों को हकीकत का रूप दे
न रुको, न थको , बस आगे बढ़ो
राह की विपत्तियों से न डरो
मन में दृढ़ संकल्प हो
ईश्वर पर भरोसा
व खुद पर विश्वास
तू जंग जीत जायेगा
आज की कोशिशों से,
तू कल को बनायेगा ।
-०-
पता
गजानन पाण्डेय
हैदराबाद (तेलंगाना)
-०-
आओ बच्चों तुम्हें आज मैं,अपनी कहानी सुनाता हूँ। पृथ्वी पर अपने सभी रूपों का,सार सरल समझाता हूँ। करोड़ों वर्षों पहले सिर्फ मैं,क्षुद्र ग्रहों पर ही अवस्थित था। यह पृथ्वी सूखी बंजर थी,यहाँ पर मैं नहीं उपस्थित था। क्षुद्र ग्रहों के टकराने से,जब यह ग्रह चकनाचूर हुये। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से,इसमें मिलने को मजबूर हुये।हाइड्रोजन आक्सीजन द्वारा,तब फिर मैं जलीय तत्व बना बर्फ वाष्प और द्रव रूप में,बना धरनि जीवन सार घना। हिमगिरी पर हिम के रूप में,हिमनदों में मैं रहता हूँ। पिघलकर सूर्य ऊष्मा में, जल बन सरिता में बहता हूँ। निश्छल अविरल कल कल करता, मैं वसुधा सिंचित करता हूं। सब प्राणियों की प्यास बुझा,हर रंग धरा में भरता हूँ। वन उपवन वनस्पति प्राणी,सब मेरा ही तो प्रतिफल है। बनकर बहता रक्त हर तन में, मुझसे ही हर चमन सजल है । नदी नहरों तालाब झीलों,और समुद्र में मैं बहता हूँ।वाष्प बनकर उड़ता नभ में, फिर बादल बन वर्षा करता हूँ। पर्वत से झरनों नदियों में,समुद्र तक यात्रा करता हूँ। छन छन कर समाता भूमि में, फिर बनकर खनिज निकलता हूँ । मेरा यह खनिज रूप जल ही,सबसे शुद्ध मीठा पानी है। इसका संरक्षण तुम कर लो बस मेरी यही कहानी है।