दो गजलें
(ग़ज़ल)
(1)
दरवाजा है मगर दीमकों का घर हो चुका है
घर था जो विवाद मे अब मकान हो चुका है !
खानाबदोश वे बस्तियां है ,उनका रिवाज नहीं
इमारतो मे जाने क्या-क्या चलन हो चुका है !
बच्चा है ,मत बांटों इन्हे किसी इंसानी धर्म मे
पर आज ,वक़्त से पहले ये जवान हो चुके है !
(ग़ज़ल)
(1)
दरवाजा है मगर दीमकों का घर हो चुका है
घर था जो विवाद मे अब मकान हो चुका है !
खानाबदोश वे बस्तियां है ,उनका रिवाज नहीं
इमारतो मे जाने क्या-क्या चलन हो चुका है !
बच्चा है ,मत बांटों इन्हे किसी इंसानी धर्म मे
पर आज ,वक़्त से पहले ये जवान हो चुके है !
मेरी सूरत, सवालों भरी नज़र से मत देखो
हर दौर देखा ,चेहरा वक़्त का गवाह हो चुका है !
हर दौर देखा ,चेहरा वक़्त का गवाह हो चुका है !
लत लग चुकी है तुझसे मिलने की अब तो
मगर बन्दिशे यूँ मानो घर सरहद हो चुका है !
-०-
(2)
यायावर हूँ साथ मनमौजी भी बस निकल पड़ता हूँ
फ़कड ज़ेब अपनी तो हर गली-मौहल्ले में विचरता हूँ !
गली-मौहल्ला,नुक्कड-चौराहा पूरा शहर मैं परखता हूँ
समाज सब धर्मो में रह मैं इनका मर्म समझता हूँ !
चप्पा-चप्पा मेरे शहर का जी भर कर मैं निरखता हूँ
शहर की सौंधी खुश्बू मेरे रगो में इसी दम पे जीता हूँ !
संतो-मुल्लो कि रूहानी बाते बस सत्संग में रम जाता हूँ
सब धर्म समान तभी अपने शहर पे इतराता हूँ !
-०-
डॉ. सुनील गज्जानी
Sutharon Ki Bari Guwad
Bikaner (Raj.)
-०-
मगर बन्दिशे यूँ मानो घर सरहद हो चुका है !
-०-
(2)
यायावर हूँ साथ मनमौजी भी बस निकल पड़ता हूँ
फ़कड ज़ेब अपनी तो हर गली-मौहल्ले में विचरता हूँ !
गली-मौहल्ला,नुक्कड-चौराहा पूरा शहर मैं परखता हूँ
समाज सब धर्मो में रह मैं इनका मर्म समझता हूँ !
चप्पा-चप्पा मेरे शहर का जी भर कर मैं निरखता हूँ
शहर की सौंधी खुश्बू मेरे रगो में इसी दम पे जीता हूँ !
संतो-मुल्लो कि रूहानी बाते बस सत्संग में रम जाता हूँ
सब धर्म समान तभी अपने शहर पे इतराता हूँ !
-०-
डॉ. सुनील गज्जानी
Sutharon Ki Bari Guwad
Bikaner (Raj.)
-०-
सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteइसे गजल की बजाय कविता कहना उचित रहेगा आदरणीय
ReplyDeleteसुनील जी भाव अच्छे हैं लेकिन इसे ग़ज़ल कहना उचित नहीं...ग़ज़ल लेखन के निश्चय कायदे होते हैं नियम होते हैं...ये मुक्त कविता जरूर कही जा सकती है...
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