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Thursday, 31 October 2019

दो ग़ज़लें (ग़ज़ल) - डॉ. सुनील गज्जानी


दो गजलें
(ग़ज़ल)
(1)
दरवाजा है मगर दीमकों का घर हो चुका है
घर था जो विवाद मे अब मकान हो चुका है !
खानाबदोश वे बस्तियां है ,उनका रिवाज नहीं
इमारतो मे जाने क्या-क्या चलन हो चुका है !

बच्चा है ,मत बांटों इन्हे किसी इंसानी धर्म मे
पर आज ,वक़्त से पहले ये जवान हो चुके है !
मेरी सूरत, सवालों भरी नज़र से मत देखो
हर दौर देखा ,चेहरा वक़्त का गवाह हो चुका है !
लत लग चुकी है तुझसे मिलने की अब तो
मगर बन्दिशे यूँ मानो घर सरहद हो चुका है !
-०-
(2)
यायावर हूँ साथ मनमौजी भी बस निकल पड़ता हूँ
फ़कड ज़ेब अपनी तो हर गली-मौहल्ले में विचरता हूँ !

गली-मौहल्ला,नुक्कड-चौराहा पूरा शहर मैं परखता हूँ
समाज सब धर्मो में रह मैं इनका मर्म समझता हूँ !

चप्पा-चप्पा मेरे शहर का जी भर कर मैं निरखता हूँ
शहर की सौंधी खुश्बू मेरे रगो में इसी दम पे जीता हूँ !

संतो-मुल्लो कि रूहानी बाते बस सत्संग में रम जाता हूँ
सब धर्म समान तभी अपने शहर पे इतराता हूँ !
-०-
डॉ. सुनील गज्जानी 
Sutharon Ki Bari Guwad
Bikaner (Raj.)
-०-
***
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5 comments:

  1. बहुत सुन्दर

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  2. बहुत सुन्दर

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  3. इसे गजल की बजाय कविता कहना उचित रहेगा आदरणीय

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  4. सुनील जी भाव अच्छे हैं लेकिन इसे ग़ज़ल कहना उचित नहीं...ग़ज़ल लेखन के निश्चय कायदे होते हैं नियम होते हैं...ये मुक्त कविता जरूर कही जा सकती है...

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