अनंत यात्रा बनाम अंतिम यात्रा
(लघुकथा)
गंगोत्री से निकल कर गंगा और यमुनोत्री से निकल कर यमुना दोनों इठलाती हुई अपनी अपनी राह पकड़ चली जा रही थी ।
जहाँ एक और गंगा को अपने स्वर्ग से उतरने का गुमान था, अपने सहस्त्र धाराओं पर अभिमान था कि मैं चांद को छूती हुई शिव के कपाल को धोती हुयी शेषनाग को भी निर्मल करती हुई इस धरा पर विधमान हूं ।
वही दूसरी और यमुना राधा कृष्ण के प्रेम की गवाह थी।
शांहजहां के प्रेम की अमर निशानी ताज, और एक विशाल ईमारत लाल किले की नींव भी इसी के पानी से रखी गयी थी।
जहाँ एक और गंगा को अपने पानी के औषधीय गुणों पर अभिमान था वहीं दूसरी ओर यमुना भी नदी घाटी सभ्यता की मूक गवाह थी ।
दिल्ली आगरा इटावा ,मथुरा और इलाहबाद जैसे शहर इसके दम पर फल फूल रहे थे ।
जहां यमुना तीव्र औद्यौगिक विकास को बयां करती थी वहीं गंगा की पावनता पर भी कोई संदेह ना था ,
हरिद्वार ,वाराणसी ,ऋषिकेश जैसे शहर उन पापी लोगों की बयानी थे जो अपने पाप धोने यहां आ जाया करते थे ।
जिस तरह अश्वत्थामा को अमरत्व का वरदान मिला कुछ ऐसा ही वरदान गंगा के पानी को भी मिला था जो कभी खराब नहीं होगा ।
इसी निर्मल पानी के साथ एक शव भी शिवत्व की ओर गतीमान था जो किसी गरीब की बेटी के रुप में जन्मा था लेकिन दाह संस्कार में असमर्थ परिवार ने उसे केवल मुँह जला कर गंगा में बहा दिया था। लेकिन एक तुलसी का पत्ता और एक सोने का "कापा "(तुस्स) जरुरी से उसके मुंह में रख दिया था ।
अब गंगा और शव दोनों अपने अपने अंतिम सफर पर थे। यह सफर प्रयाग राज तक पहुँच चुका था ।
अचानक एक तीव्र दुर्गन्ध युक्त पानी का नाला कई शहरों का मल मूत्र लिये संगम पर आ धमका जो यमुना के रूप में था ।
गंगा और शव दोनों सहम से गये थे ,वह दुर्गन्ध युक्त पानी,गंगा सहित शव के नथुनों में भी समाने लगा था ,गंगा को ऐसे संगम की उम्मीद ना थी ।
गंगा तो यही अरमान ले कर सफर पर चली थी कि तीसरी सहेली सरस्वती भी वहीं मिलेगी लेकिन वो तो मिलने से पहले ही विलुप्त हो चुकी थी शायद उसने भी कभी ऐसे संगम की उम्मीद नहीं की थी।
दुर्गन्ध युक्त पानी नथुनों में समाने से शव का भी जी घबरा उठा मानों अवश्वत्थामा के घावों का मवाद गंगा में रिस रहा हो, तभी शव का मुंह खुला और सोने का घुंघरू और तुलसी का पत्ता बाहर निकल कर संगम के पेंदे में जा छुपा मानो आगे का सफर उसे स्वीकार ना था।
गंगा मन मसौस कर रह गयी चूंकि सफर तो करना ही था । गंगा अपनी बची हुई अस्मत के साथ सुन्दरवन के डेल्टा में पसर गयी वो जान चुकी थी अमरत्व का वरदान एक छलावा था।
जिस किसी को भी ये वरदान मिला वो छलावे के रूप में ही तो मिला ।
मृत्यु अटल थी और अटल रहेगी चाहे इच्छा मृत्यु भी क्यों ना हो भीष्म को भी स्वीकारनी पड़ी। जो स्वयं भी गंगा के पुत्र थे और इच्छा मृत्यु का वरदान ले कर आये थे।
गंगा इच्छा मृत्यु को स्वीकारती हुई सागर से जा मिली अब गंगा का अस्तित्व समाप्त हो चुका था ,साथ ही वो शव भी जलीय जन्तुओ के निवाले के रूप में इच्छा मृत्यु का वरण कर चुका था।
शिव के तीनों नेत्र बन्द थे मानो वे ये दृश्य नहीं देखना चाहते हो ।
वहीं ऋषी भगीरथ की आत्मा भी पीठ फेर कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर चुकी थी ।वो शायद अपनी मेहनत की ऐसी बदहाली देखने को तैयार ना थी ।
अंतिम सफर खत्म हो चुका था ।
(कापा या तुस्स : एक प्रकार का सोने का टुकड़ा होता है जो मरने के बाद शव के मुँह में रखा जाता है जो कोई घुंघरू या सोने के तार के रूप में होता है, ऐसा माना जाता है इसको रखने से मृत देह पवित्र रहती है और उसे बुरी आत्माओं से बचाती है)
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नीरज जैन
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