संधी प्रस्ताव से पूर्व (आलेख)
(आलेख)
कृष्ण का हस्तिनापुर में पांण्डवों का दूत बन कर आगमन हुआ। भीष्म अपने आप को वर्तमान परिस्थितियों में बिल्कुल लाचार महसूस कर रहे थे। जब बाढ़ का पानी सिर की सीमा को छूने का आतुर हो तब बचाव का संर्धष ही केवल एक मार्ग बच जाता है। पितामह की राष्ट्र्र के प्रति प्रतिबद्धता निष्ठा का दिया हुआ वचन, जिसके कारण आज उनके विचारों के द्वार के सारे कपाटो पर ताले जड़ दिये थे। ऐसे में समाचार आया कृष्ण पांण्डवों के दूत बनकर आ रहे हैं क्या! कैसे? कब! कब! जैसे प्रश्नों का सामना करता हस्तिनापुर का राज परिवार। सब अपना अपना दिमाग अपनी अपनी सोच के अनुसार दौड़ाने लगे थे और जैसा कि विदित था दुर्योधन अपनी सोचने की शक्ति को मामा शकुनि को सौप कर निश्फिक्र बैठा हो ऐसा नहीं था। यदा कदा वह कर्ण की भ्ां सुन लिया करता था। कर्ण उसकी सोच का एक मजबूत पासा था और कर्ण के लिये दुर्योधन उसके व्यक्त्वि का एक मजबूर थंब था।
कृष्ण के आगमन का समाचार पाकर कर्ण सोचने विचारने तो लगा था। मामा शकुनि मन ही मन भयभीत थे। शकुनि भी चालाबाज था और कृष्ण चतुर थे। दौनों की चाले अचूक थी पर एक की चाल लोक हितकारी थी और दुसरे की लोक विनाशकारी। बस यही फर्क था। शकुनि को रात भर का समय मिला जब उसे दुर्योधन व अपने अन्य भानजों को समझाया था कि कृष्ण के संम्मोहन में आये बिना सिर्फ अपने हित के बारे में ही विचार करते रहें। पहले दिन सबसे मिलने के बाद आज सब से पहले कृष्ण उषा काल के समय गांधारी के कक्ष में अचानक चले आये,माता गांधारी उषापान करने अपने कक्ष की खिड़की तक ही पहुँची थी हल्के ताप को अपने में महसूस करती देवी गांधारी बैठने का विचार कर ही रही थी कि उसे मधुर सम्मोहित कर देने वाला स्वर जो उसकी रग-रग को झकझोर गया सुनाई दिया.... बुआ.....मै आ गया.....
गांधारी कभी कृष्ण से नहीं मिल पाई थी। विवाह से पहले देखा भी नहीं था बालपन में भी उसने बस सुना भर था, यशोदा का लाड़ला, द्वारिकाघीश,कैन्हैया गिरधारी, मुरारी बिहारी गेपाल ना जाने कितने नाम धारी बालक की अदभुत बातें पर वह तो कृष्ण के बचपन का समय था.... सब बातें कौतुक भरी लगती हैं पर आज इस प्रौढता को पाकर उन बातों की सार्थकता समझ पा रही थी ं.....
कृष्ण का ‘बुआ‘ शब्द रंग रंग को झंकृत कर उसके अन्तर में उतर गया । वासुदेव कृष्ण ने गांधारी के चरणों को स्पर्श मात्र ही किया था। न जाने कौनसी ताकत होती है कुछ लोगों के दर्शन मात्र में कि बात करते हैं तो लगता है दिल को अपना बना लेते है। याद आ रहा है गांधारी को, उस दिन आर्शिवाद के वचन निकले भी... पर क्या ..........नहीं मालूम कृष्ण खड़ा हैं गांधारी के दौनों कंधे थामें, दो सशक्त बाहें मुझे निहारती आदर से कुछ कह रहीं थी.... लगा जैसे वह कपटी मेरे रोम-रोम में समाता चला गया। उसका वह सात्विक अहसास जो मेरे अन्तर को झकझोर रहा था.....गांधारी चाहते हुये भीं अपने हाथों को रोक न पाई केशव के सिर पर स्नेह वर्षा कर उनके पिताम्बर को महसूस करती गांधारी का अनायास प्रश्न‘‘ सुना हैं तु पितांम्बर धारी है...केशव.. .....’’.सही सुना है बुआ’’ पर आपको क्या लगता है? गांधारी ने स्नेह से कहा मुझे.....? मुझे तो अब सूर्य की आभा सा सब पीत ही महसूस हो रहा है ’’क्या बात है बुआ तुम में रंगों को बंद आखों से परख लेने की अदभुत शक्ति है.’’.......फिर तो बुआ तुम मानव मन को भ्ां पढ लेती होगी? सकपकाई गांधारी ने कहा... अरे कहॉ...... पर सुना है मोर पंख है तेरे सिर पर कृष्ण ने अपनी मोहनी चितवन से कहा था ’’हॉ बचपन में माता यशोदा अपने लाल पर ठांना करने के लिये लगाती थी अब आदत हो गई, मोर पंख की....’’ अरे सुना तो यह भी है पहचान है तेरी ’’...हँसते हुये कृष्ण ने कहा नहीं बुआ पहचान तो इंसान की उसके अपने कर्मो से होती है’’पर सच है बुआ कहते कहते कृष्ण ने अति आदर भरे स्नेह से गांधारी की बांह पकड़ कर उसे कक्ष में रखे आसन पर बिठा दिया और स्वयं उनके चरणों के पास स्नेह से बैठ गया। पहले तो गांधारी कुछ नहीं समझी फिर तत्काल उसने सेवको को आवाज देनी चाही कृष्ण के बैठने के लिये कुछ......गांधारी को तुरन्त रोका था। कृष्ण ने ना ना रहने दो बुआ, आज वर्षो बाद तुम्हारे पास इस तरह बैठना अच्छा लग रहा है। बात को आगे बढाते हुये कृष्ण ने कहा था’’ यह मोर पंख भी अनोख है बुआ सभी रंगों को अपने में समाहित अनेक भागो में विभक्त फिर भी एक ही नजर आता है मुलायम ,सुखकारी... इस लिये ही तो मैने इसे अपने सिर पर घारण किया है!...वर्तमान में लौट आई गांधारी.... हाँ... केशव....गांधारी कृष्ण को इस तरह अपने चरणों में बैठा देख कर प्रसन्न भी थी और असहज भी थी।
ना जाने इस छलिये का क्या प्रयोजन हो। कुछ विचार प्रवाह में बहते हुये गांधारी ने कहा ’’मोर पखों के कोमल रंगो सा तुम्हारा मन बदलते परिवेश के विषय में क्या सोच रहा है .....और अपनी ही बात का रूख बदलते हुये कहा ’’कितनी बातें करनी थी केशव.....तुम कल से आये हो अब मिले हो आकर......!’’ गांधारी ने उलाहना दिया था। कृष्ण ने अपनी जानी पहचानी उन्मुक्त हंसी से कहा था। ’’ दूत हूँ ना बुआ अपना कर्तव्य पूरा करने में लगा रहा। पर प्रातः सर्वप्रथम आपके दर्शनों को ही आया हूॅ ’’सत्य सत्य...... ना !ना! केशव तुम और असत्य...! अपना उलाहना जैसे गांधारी को ही कोचने लगा था। संधी प्रस्ताव के लिये आये कृष्ण से गांधरी ने अनेक पारिवारीक और औपचारिक बातों के साथ कहा था कि मैने सुना है कि पाण्डव अज्ञातवास पूरा होने की अवधी के पूर्व ही पहचान लिये गये हैं शर्त के अनुसार तो उन्हें पुनःबारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास में रहना चाहिये’’ तब कृष्ण ने कहा था ’’ आप इतनी चिन्ता क्यों करती हैं बुआजी आप तो वास्तविकता जानती है।’’ चलिये बाकी सारी समझ मैं आपके ऊपर छोडता हुं आप जो भी निर्णय दे देंगे मुझे स्वीकार्य होगा मै उतने पर ही पाण्डवों को मना लूंगा। जानती थी गंधारी की कृष्ण को तर्को से हराना कठिन ही नहीं असंभव है जैसे ही वैचारिक विवाद होगा कृष्ण यही कहेगा औरों की बात छोडिये आप अपनी आत्मा की आवाज सुनिये। सहज मातृत्व मुखर हुआ और एक मां की आवाज निकल आई दूसरे पुत्र के सामने। दुर्योधन को समझाओ केशव......! बुआ’’ परिस्थितियाँ समझने और समझाने की सीमा पार कर चुकी है’’ ..... अब तो बस इतना ही कहूंगा बुआ कि सबके पास खूबीयाँ और कमियाँ दौनों है बुआ अब लोग क्या देखतें है ये लोगों पर निर्भर करता है ......युं तो इस परिवार में पांण्डवों के सभी तो... अपने हैं अपनापन तो सभी दिखाते है पर अपना कौन है यह तो समय ही बताता है। म्ें तो आज दूत बन कर आया हू। निश्चय ही आपका जो संदेश होगा उनसे जाकर कह दूंगा, जो मेरा कर्तव्य है। वातसल्य से भरकर कहा भी था ’’जो मैं कह दुंगी तु मान जायेगा कृष्ण!’’ अवश्य मान जाऊँगा बुआ क्यों कि मैं जानता हुं आपका ह्रदय निर्मल है आप भले मां कौरवों की हैं पर अभी तक आपने अपने कदम अर्धम की और नहीं रखे।’’
गांधारी सुन तो रही थी पर दिमाग में अनेक झंझावत उठ रहे थे। कृष्ण की सम्मोहित करती वाणी का प्रभाव ही तो था या मन का अर्न्तद्वन्द था। कुछ पल के लिये गांधारी को लगा भी कि कहीं यह मुझे लुभा कर अपनी और तो नहीं कर लेगा फिर तुरन्त अपने संशय से बाहर निकलकर कह ही दिया ’’तुम तो हमारी बात बात सुन लोगे कन्हैया पर हस्तिनापुर की राजसभा में हम नारियों की बात ही कहाँ सुनी जाती हैं ’’और कृष्ण ने एक आह सी भरते हुये स्वीकृति दी थी ’’यही है आर्यावर्त का दुर्भाग्य कि नारियाँ उपेक्षित हैं उनकी वेचारिक अस्मिता स्वीकार्य ही नहीं कि जाती। कृष्ण ने बात का संम्पादन करते हुये स्वीकृति दिखाई और अचानक किसी आहट को सुनकर गांधारी के चरण छु कर कृष्ण तुरन्त कक्ष के बाहर निकल गये। क्यों कि अचानक उन्हे लगने लगा था कि चारो तरफ कुछ अप्रकट है। कृष्ण ’’महामानव’’ उनकी खूबी यही थी कि वह जब भी किसी से मिले, किसी भी रिश्ते से मिले, किसी भी अवसर पर मिले, एक नये अनोखे रूप में मिल,े रिश्तों में पूरी ताजगी लिये .... उनका गांधारी के साथ इस तरह मिलना व्यवहारिक तो था ही एक सुन्दर संस्कार भी था। याद कर रही थी गांधारी क्या कहती किसे समझाये चारों तरफ से ही तो घिरी थी। दुर्योधन के कारण आज कृष्ण के साथ मिलन जैसे पवित्र अवसर पर भी वह अशांत थी। कहिं भावनाओं का ज्वार था तो कहीं महत्वकांक्षाओं का उबाल । कृष्ण जब जाने का उध्घत थे बस जाते समय इतना ही कह पाये थे ’’कभी कभी भगवान् भी मात्र कर्तव्य पालन में आस्था रख भविष्य से अनजान बने रहने को बाध्य होते हैं’’।
कृष्ण के जाने के बाद बहुत समय लगा गांधरी को कृष्ण के सम्मोहन से बाहर आने में उसका मधुर स्पर्श उसका सम्मोहित करने वाला स्वर और दिल तक भेद कर उतर जाने वाली गहरी आवाज।
गांधारी ने महसूस किया सच है वह जो महसूस करती है कि राजभवन में महिलाओं की कोई सुनता नहीं है आज कृष्ण ने भी यही महसूस किया है और उसी समय गांधारी ने निर्णय लिया कि अब जो राज सभा होगी वह उसका हिस्सा अवश्य बनेगी। मन में तो उथल पुथल थी ही कि उसका वहाँ जाना उचित होगा अथवा नहीं? उसे आमंत्रित भी तो नहीं किया गया था क्यों की वह काल जिसमें राजनिति को स्त्रियों की पहुँच से बाहर गिना जाता है गांधारी यह भी जानती थी कि कुछ सभायें ऐतिहासिक होती हैं उसे भी सूचना मिल गई थी।
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श्रीमती प्रभा पारीक
भरूच (मध्यप्रदेश )
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