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Monday, 3 February 2020

ठण्ड की रात (कविता) - जगदीश 'गुप्त'


ठण्ड की रात
(कविता)
अभी शरद का मनभावन सौंदर्य बिखरना शुरू हुआ था ,
अलसाई सी ठण्ड ने भी अपने डैने नहीं फैलाये थे ,

येन भोर के उजाले में अभी मुर्गों के दबड़े भी सन्नाटे में डूबे थे ।
एकाएक सुबह की शीतलता को बाँहों में समेट लेने को जी चाहा ।

गले में मफलर पावों में पाँवपोश और नरमई स्वेटर का साथ ले ,
ऋतु श्रृंगार को छंदबद्ध करने का अरमान जागा ।

कि कल्पना का तार झनझनाया !
तीखे कररर स्वर के बेसुरे शब्दों से रोम रोम सनसनाया ।

चार जोड़ी नन्हें हाथ दिन भर के फेंके कूड़े को जतन से समेट रहे थे ,
और आने वाली भयानक ठण्ड की सोच को अपने जेहन में लपेट रहे थे ।

जनाब कविता छोड़िये , नन्हें मजदूरों की कानाफूसी पर ध्यान दीजिये -
अभी जैसे तैसे फटे चिथड़ों में तन ढँक जाता है ,

पैर नंगे सही काम तो चल जाता है ,
धूप भी साथ देती है , रात बोरे में गुजर जाती है ।

दिन पूरा मिलता है , रद्दी पन्नी भी ज्यादा मिल जाती है ।
फिर जानलेवा ठण्ड आ जाएगी , हमारी तो घिग्गी बांध जाएगी !

सारा कुसूर तो इसी शरद का है ,
जो शिशिर की अगवानी में आ पसरा है ।
लोग जाने कैसे लिख लेते हैं ,
शरद के मौसम का पूरा लुत्फ़ लेते हैं ।

हमें तो इसकी चांदनी भी नहीं भाती है ,
हलकी सिहरन में कड़ाके की ठण्ड नजर आती है ।
-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

-०-


***
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1 comment:

  1. सुन्दर रचना के लिये आपको बहुत बहुत बधाई है आदरणीय !

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