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Monday, 27 July 2020

धरती (कविता) - दुल्कान्ती समरसिंह (श्रीलंका)


धरती
(कविता)

जब पहाडियाँ समतल हो जाती हैं,
बड़े पेड़ गिर पड़ते हैं,
तब भी रखती है शांति
धरती..
तू भी हमारी माँ की तरह ही है।

गड़गड़ाहट बिजली की ,
गर्जन आसमान से
सहते रहती है चुपचाप।
धरती..
तू भी हमारी माँ की तरह ही है  ।।

ज्वालामुखी पहाड़ियां
फूट जाते हैं
झटकते हैं तूफान
देखते रहती है तू
धरती...
तू भी हमारी माँ की तरह ही है।।

धूप से गर्मी हो जाती ,
बारिश गीला करती है
पर तू मौन से रहती है
हे, धरती !
तू भी हमारी माँ की तरह ही है  ।।

मल मूत्र लगाए और थूकना ,
अंधेरे बढ़ाए, रोशनी आए,
सभी एक की तरह ही  है ,

हे, धरती !!
तू भी हमारी माँ की तरह ही है।।

भूकंप कभी कभी , जब गुस्सा आए तो
फिर भी पहले रूप है
धरती....
तू भी हमारी माँ की तरह ही है ।।।
-०-
दुल्कान्ती समरसिंह
कलुतर, श्रीलंका

-०-






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1 comment:

  1. अच्छी रचना के लिये हार्दिक बधाई है आपको।

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