बासमती का पौना
(कविता)गाँव छोड़ा इसलिए था,
शहर में संभावना थी,
चार रोटी तो मिलेंगी,
भट्ठियों में तन तपाकर |
पास के जलवायु में तो,
ईंट-भट्ठों का धुआँ था,
पेट भी था भाड़ सा, यह
अधभरा खाली कुआँ था,
मर गए उद्यम घरेलू,
थे पड़े पगडण्डियों पर,
जेठ की दोपहरियों में,
देह की हड्डी गलाकर |
कुछ दिनों तक साँस भटकी,
कोठियों की धूल, फाँकी,
गंदगी की नालियों में,
जिन्दगी की भूल, झाँकी,
खड़े पुल की गुटरगूँ में,
आस के दीये जलाए,
बुझ रहीं चिनगारियों से,
आँच चूल्हों की जलाकर |
अब समय की धाँधली से,
मन बहुत घबड़ा रहा है,
दाँत की रक्षा किया जो,
वह नहीं जबड़ा रहा है,
आँधियों के बीच आस्था
का हिमालय गल गया है,
लौट मैं घर चल पड़ा हूँ,
भूख की गठरी उठाकर|
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पता:
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
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