बड़े-बड़े बर्तन
(लघुकथा)
"आज सुबह से ही मुन्ने को बुखार है "
"किसी डॉक्टर को बताऊँ तो ठीक है परंतु सुबह से एक बूँद,दुध भी नसीब नहीं हुआ इस अभागे को "
"मैं भी कितनी दरिद्र मां हूँ,जो कमजोरी की इतनी गहरी खाई में फंस चुकि हूँ कि एक घूँट दुध भी अपने छाती से निकाल कर दे नहीं सकती अपने लाडले को, ताकि वह अपनी भूख मिटा सकें",
अपने आप को कोसते हुए मंगली बड़बड़ा रही थीं।
सारे शहर में पुनम की इस खास रात के (कोजागीरी) त्यौहार को मनाने की तैयारियों में लोग हर डेअरी पर मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थें।
आज चाँद के रोशनी में दुध,मूंगफली और नमकीन आदि का स्वाद और मुहल्लें के सभी लोगों का किसी बडी-सी छत पर इकट्ठा होकर, नाचना-गाना, निश्चित ही इस उत्सव को यादगार बनाने में कोई कसर छोड़ने वाला नहीं था।
एक तरफ दुध से भरे बड़े- बड़े बर्तनों की चमक और दूसरी ओर एक घूँट दुध का सवाल मन में लिए मंगली एक दुग्धालय पर जा पहुंची।
डेअरी पर पहले से ही मौजूद लोग जिनके हाथों में बड़े-बड़े बर्तन देख, हाथों का वह छोटा-सा प्याला उसे कमजोर बना रहा था। लोगों की भीड़ में उसकी आवाज का दुधवाले तक पहुंचना लगभग नामुमकिन ही था।
पर अपने बच्चे की भूख ने उसमें इतनी हिम्मत भर दी कि उसकी आवाज़ सुनते ही लोगों ने उसे रास्ता बना दिया।
डेअरी पर खड़े लोगों के बड़े-बड़े बर्तन मंगली के गिलास से बौनें नजर आ रहे थें।
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
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