शायद तुमको पता नहीं,,,
(कविता)
आकर्षण बेघर कर देगा
शायद तुमको पता नहीं
कब ज़ख्मों को तर कर देगा।
शायद तुमको पता नहीं।।,,,
रोज़-रोज़ का सपना बुनते
नहीं किसी का कहना सुनते,
नये-नये सन्दर्भों को हम
चुनते जाते गुनते-धुनते।
जग सब तितर-बितर कर देगा,
शायद तुमको पता नहीं,,,
कोई मन का मीत न मिलता,
यौवन फिर सुपुनीत न मिलता,
तुम आते यदि नहीं जुबाँ पर,
शब्दों को संगीत न मिलता।
शाप कोई पत्थर कर देगा,
शायद तुमको पता नहीं,,,
तुम मेरा सब नेह छोड़कर,
दूर गए क्यों गेह छोड़कर,
अरमानो के मेह(बादल)मोड़कर
संकल्पों की देह तोड़कर।
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