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Saturday, 10 October 2020

आओ , मिलकर दीप जलाएँ (कविता) - त्रिलोक सिंह ठकुरेला

आओ , मिलकर दीप जलाएँ 
(कविता)
आओ , मिलकर दीप जलाएँ।
अंधकार को दूर भगाएँ ।।

नन्हे नन्हे दीप हमारे
क्या सूरज से कुछ कम होंगे ,
सारी अड़चन मिट जायेंगी
एक साथ जब हम सब होंगे ,
आओ , साहस से भर जाएँ।
आओ , मिलकर दीप जलाएँ।

हमसे कभी नहीं जीतेगी
अंधकार की काली सत्ता ,
यदि हम सभी ठान लें मन में
हम ही जीतेंगे अलबत्ता ,
चलो , जीत के पर्व मनाएँ ।
आओ , मिलकर दीप जलाएँ ।।

कुछ भी कठिन नहीं होता है
यदि प्रयास हो सच्चे अपने ,
जिसने किया , उसी ने पाया ,
सच हो जाते सारे सपने ,
फिर फिर सुन्दर स्वप्न सजाएँ ।
आओ , मिलकर दीप जलाएँ ।।
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त्रिलोक सिंह ठकुरेला ©®
सिरोही (राजस्थान)








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चिठ्ठी न कोई संदेश... (आलेख) - कमलेश व्यास 'कमल'

 

चिठ्ठी न कोई संदेश...
(आलेख)
(10 अक्टूबर,'राष्ट्रीय डाक दिवस' पर विशेष)

एक कहावत है  - "ख़त का मजमून भाँप लेते हैं लिफाफा देखकर।" हैं साहब ऐसे लोग, जो ऐसा कर सकते हैं, लेकिन बहुत कम। हो सकता है आने वाले समय में यह कहावत अप्रासंगिक हो जाए और लिफाफा देखकर मजमून भाँपने वाले कोई न बचे...क्योंकि वर्तमान पीढ़ी न तो कागजों पर ख़त लिखती है और ना ही डाक घरों तक पहुँचाती है! अब 'ईमेल' सहित कई माध्यम जो हैं।  ना तो अब सड़क किनारे या किसी पेड़ पर बंधे वो लाल डब्बे दिखाई देते हैं जिनमें लोग अपने खतों को डालते थे। जिसे डाक विभाग का कर्मचारी एक निश्चित समय पर निकाल कर पोस्ट ऑफिस  ले जाता था और वहाँ सभी पत्रों की छँटाई कर गंतव्य तक पहुँचाने का उपक्रम किया जाता था। यह उपक्रम आज भी होता है, पर उसमें व्यक्तिगत पत्रों की संख्या बहुत कम रह गई है। 166 साल पुराना डाक विभाग यूँ तो अब अत्याधुनिक संसाधनों से युक्त पूर्ण तकनीक की ओर अग्रसर है पर जो आत्मीय लगाव व्यक्तिगत पत्रों के स्वर्णिम काल में एक आम आदमी को इससे था, वह अब नहीं है।  उस जमाने में डाकियों के भी अपने जलवे होते थे,  खाकी रंग की वर्दी के ऊपर नोक दार टोपी जिस के अगले हिस्से में एक लाल,काली पट्टी और कोटनुमा शर्ट में बड़ी-बड़ी जेबें, कंधे पर एक थैला जिसमें वितरण के लिए डाक सामग्री, कुछ पत्र हाथ में।  वे जिस गली-मोहल्ले से गुजर जाते थे वहां कई निगाहें या तो उन्हें चुपचाप देखती रहती थी या कुछ अपने उतावलेपन में पूछ भी लेते थे कि "भैया! हमारी कोई डाक आई है क्या?"  कुछ लोग जो अपने घरों में  व्यस्त रहते थे उनके कान सतर्क रहते थे कि कब डाकिया बाबू आवाज लगा दे।  चिट्ठी पत्री के अलावा त्योहारों पर ग्रीटिंग कार्ड्स का भी एक जमाना रहा है। त्यौहारों पर पोस्टमेन द्वारा इनाम की दरकार अलग से, और लोग भी खासतौर से दीपावली पर डाकिया बाबू को कुछ रुपए और मिठाई अवश्य देते थे। कुछ लोग तो बाकायदा अपने घर में बैठा कर स्वल्पाहार करवाते थे।पर अब न वो वर्दी दिखाई देती है और ना ही वैसे डाकिये...!  अब तो यदा-कदा साइकिल से कोई डाकिया या कोई कोरियर वाला किसी का कोई बिल या पार्सल लेकर आता दिख जाए तो गनीमत वरना 'ई मार्केटिंग' के आदमकद थैलों  से लदे मोटरसाइकिल पर कुछ युवा आते-जाते अवश्य दिख जाते हैं या जोमैटो,स्विग्गी जैसे पके पकाए भोज्य पदार्थ लेकर घरों में देते एक विशेष रंग की टीशर्ट पहने युवा...! पर अब वह  सौहार्द,अपनत्व कहीं दिखाई नहीं देता जो व्यक्तिगत पत्रों के ज़माने में था।



पत्र लेखन किसी साहित्यिक विधा से कमतर नहीं, बल्कि साहित्य की एक विधा ही है,  जो अब लगभग लुप्त हो चुकी है। किसी भी पत्र की शुरुआत कोई कैसे करता है इससे पत्र लिखने वाले की बौद्धिक क्षमता का पता किया जा सकता है। अलबत्ता भावावेश या अत्यधिक प्रेमासिक्त हो कर लिखे गए पत्रों को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वैसे भी ऐसे पत्र, डाक द्वारा कम ही भेजे जाते थे,इन्हे तो किसी खास व्यक्ति द्वारा या व्यक्तिगत तौर से छुप-छुपाकर दिया जाता था और दिया जाता है।

कुछ लोग पत्र के शुरुआत में किन्हीं देवी देवता का नाम या बीज मंत्र लिखते थे, कुछ लोग रेखांकन भी कर पत्र की शुरुआत करते थे, यानी इसी प्रकार से कुछ और लिख या बनाकर, पर हां, परंपरागत पत्र लिखने वाले बकायदा पत्र के दाहिनी ओर ऊपर तारीख,स्थान और कुछ लोग वार भी लिखकर पत्र की शुरुआत करते थे। हमारी पीढ़ी के लगभग सभी लोगों के पास अपने प्रियजनों, बुजुर्गों, गुरुजनों के या कुछ और पत्र अवश्य ही किसी संदूक में या कहीं ओर सुरक्षित,संरक्षित रखें मिल जाएंगे, जिन्हें कभी-कभार पढ़ कर अपनी स्मृतियों को तरोताजा कर हृदय का स्पंदन सुन नेत्र मूंदकर उस युग में पहुंच जाते होंगे जो अब कभी लौट कर नहीं आने वाला...!

पोस्ट कार्ड, अंतर्देशीय पत्र और लिफाफा इन तीनो में से आसमानी रंग का अंतर्देशीय पत्र अब बहुत कम दिखाई देता है। आजकल तो मोबाइल से पैसे ट्रांसफर होने लगे हैं वरना किसी जमाने में मनीआर्डर का बड़ा महत्व था। और 'तार', उसके तो जलवे ही अलग थे। किसी के नाम से तार आना बहुत बड़ी बात होती थी। 'टेलीग्राम' जिसके नाम से आता था उसकी तो छोड़िए, जो सुनता था कि फलां व्यक्ति के नाम से तार आया है उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगती थी...!   अब तो 'पोस्ट एण्ड टेलीग्राम' में से 'टेलीग्राम' गायब ही हो गया है।संचार क्रांति के इस दौर के शुरुआत में ही 'तार घर' अप्रासंगिक हो बंद हो चुके थे।

एक जमाना था जब कक्षा छटी से लेकर कक्षा दसवी तक की परिक्षा में अंग्रेजी के पेपर में 'पोस्टमेन' पर निबंध आता ही था। जिसे मुझ जैसे हिन्दी मीडियम के लोग रट्टा मारकर लिख कर अंग्रेजी में पासिंग मार्क ले आते थे...!!

उस जमाने की फिल्मों में भी ख़त या पत्र को लेकर कई गीत बने जो लोकप्रिय भी हुए, उनमें से कुछ गीत तो सदाबहार हैं जो आज भी गुनगुनाते लोग मिल जाएँगे। जैसे- "फूल तुम्हे भेजा है ख़त में, फूल नहीं मेरा दिल है।" या "लिखे जो ख़त तुझे, वो तेरी याद में, हजारों रंग के नजारे बन गए।" या "ख़त लिख दे सँवरिया के नाम बाबू।" या "चिठ्ठी आई है वतन से चिठ्ठी आई है।" या "आएगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की।" और "डाकिया डाक लाया डाकिया डाक लाया।" इत्यादि कई गीत हैं। बहरहाल तो डाकिया बाबू को याद करते हुए बस यही गीत याद आ रहा है- "चिठ्ठी न कोई संदेश,जाने वो कौन सा देश, जहाँ तुम चले गए।"
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कमलेश व्यास 'कमल'
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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Friday, 9 October 2020

सुख दुख है जीवन में दोनों (गीत) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'

सुख दुख है जीवन में दोनों
(गीत)
कभी सुरों की सरिता बहती,
कभी जिंदगी  कांव-कांव है। 
सुख दुख है जीवन में दोनों, 
कभी धूप है  कभी  छांव है।। 
******
कभी  अंधेरे  कभी  उजाले, 
से  होकर  जाना  पड़ता  है।
जीवन का रथ उबड़खाबड़, 
रास्तों   से  आगे   बढ़ता  है।। 
कोई  फूल  बिछाए  पथ  में, 
कोई  कांटे  बिछा   रहा   है। 
कोई   टांग   खींचता   नीचे, 
कोई   ऊपर   उठा  रहा   है।।
कभी मखमली  गद्दो  पर है, 
कभी धूल में  सना  पांव  है। 
सुख दुख हैं जीवन में दोनों, 
कभी धूप  है  कभी छांव है।।
*******
कभी  कहीं   है  सर्दी   गर्मी, 
जीवन नित्य  बदलने वाला। 
कभी श्वेत वर्णी  जीवननभ, 
कभी हुआ है  देखो  काला।। 
कभी-करी उत्तीर्ण  परीक्षा, 
कभी फेलका मजा चखाहै। 
हानिलाभ से ऊपर उठकर, 
जिसने जीवन यहां रखा है।। 
उत्तम वही तो मनआँगन है,
नहीं  रहे  जिसमें  तनाव है। 
सुखदुख है जीवन में दोनों, 
कभी धूप है  कभी छांव है।।
******* 
आशा और निराशा  के जो, 
दो  पैरों   पर  नाच  नचाए। 
कठपुतली ये बना, जिंदगी, 
कभी हंसाए कभी रूलाए।। 
कभी गमोंके अश्क आँखमें,
कभी खुशी  नजरें बरसाती। 
कभी मौत हंसती आआकर, 
कभी चाहने  पर  ना आती।। 
कभीउदास"अनंत"मनबस्ती, 
शोर  मचाता  कभी  गांव है।। 
सुखदुख है जीवन में  दोनों, 
कभी धूप है  कभी  छांव है।। 
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अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
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तुम जिम्नेदार हो (कविता) - सपना परिहार

तुम जिम्नेदार हो
(कविता)
नानी भी अपनी माँ से
सीखी होंगी दबना,झुकना,
नानी से माँ ,तुमने भी सीखा
लड़कियों को सलीक़े में रखना,
ढेर सारी हिदायतों में रखना,,!
न खुल कर मुस्कुराना,
न आत्मविश्वास से चलना,
न किसी को मुँह तोड़ जवाब देना,
क्यों... माँ,,,क्यों...?
क्यों नहीं सिखाया तुमनें
सीना तान के चलना,
पुरुष प्रधान समाज में
सम्मान और हक से जीना,
और,,, सबसे बड़ी बात,
अपने जिस्म को घूरने और
छूने वाले दरिंदे को
उसी समय उसके पुरुष होने का
अभिमान काट गिराने का,
जिसे वो हक समझता है,
किसी भी स्त्री का शील भंग करना,,!
माँ,,, क्यों करे हर बेटी प्रतीक्षा
उसे न्याय मिलने का!
जो कभी समय पर मिलता नहीं,,!
माँ,, बेटी को आज आग बनने दो,!
जिसे छूने की कोई भी करे हिम्मत
तो,,,, झुलस जाए उस अंगार में,
और,,, किसी भी स्त्री को कभी
न छू सके,,,गलत इरादे से,,!

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पता:
सपना परिहार 
उज्जैन (मध्यप्रदेश)


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बेटियों पर जुल्म देश पर बहुत बडा कलंक (आलेख) - सुनील कुमार माथुर

बेटियों पर जुल्म देश पर बहुत बडा कलंक
(आलेख)
 
देश भर में जहां एक ओर बेटी बचाओं , बेटी को पढाओ का नारा दिया जा रहा हैं वही दूसरी ओर बेटियों पर ही सर्वाधिक जुल्म हो रहें है । हाथरस की घटना के बाद राजस्थान व अन्य राज्यों में बेटियों के साथ गैंगरेप की घटनाओं के बाद उनकी हत्या कर देना एक चिंता की बात हैं । ऐसी घटनाओं के बाद अपराधियों को मौत की सजा देना तो दूर की बात है अपितु विपक्ष इस पर राजनीति करने लगता हैं ।

इस प्रकार की घटनाओं पर राजनीति करना ओछी मानसिकता का परिचायक है । दरिन्दों को बचाने के बजाय उन्हें फांसी की सजा दी जानी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो । अगर इन दरिन्दों से कोई पूछें कि कोई तुम्हारी मां , बहन , बेटी के साथ ऐसी दरिंदगी करें तो क्या होंगा । हम किसी के जीवन में खुशियां नहीं ला सकतें है तो कोई बात नहीं लेकिन हमें किसी के जीवन को संकट में डालने , किसी की जान लेने व किसी की जिन्दगी से खिलवाड करने का कोई अधिकार नहीं है । 

हाथरस में जो घटना घटित हुई उससे समूचे राष्ट्र का सिर शर्म से झुक गया । आखिर प्रशासन की ऐसी क्या मजबूरी थी कि पीडिता का रातों रात अंतिम संस्कार किया गया वह भी परिजनों से बिना पूछें । आखिर क्या मजबूरी थी कि सवेरे तक का इन्तजार भी नहीं किया गया । 

हम बालिका दिवस व महिला दिवस मनाते हैं लेकिन अपनी मर्यादा को भूल जाते है आखिर क्यों  ? बेटियों पर जुल्म देश पर बहुत बडा कलंक हैं । दबंगों की दबंगई के किस्से हम रोज समाचार पत्रों में पढते हैं और टी वी समाचारों में देखते हैं लेकिन आज दिन तक सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया है और नतीजा सामने हैं । आखिर कब नारी पर होने वाले जुल्म थमेगे ।

आज समानता के अधिकारों की बात की जाती हैं और महिला सशक्तिकरण पर जोर दिया जा रहा है यही वजह है कि आज देश भर में महिलाएं हर क्षेत्र में पुरूषो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं । लेकिन इस पुरूष प्रधान देश में पुरूष वर्ग यह नहीं चाहता हैं कि महिलाएं हम से आगें निकल जायें और वे उनसे अधिक कमाने लग जायें । बस इसी हीन भावना के चलतें पुरूष वर्ग नारी की प्रगति में बाधक बन कर उसे येन केन प्रकारेण परेशान करता हैं । 

उसको नीचा दिखाना चाहता हैं । वह उसे प्रगतिशील एवं अग्रगामी विचारों के रूप में नहीं देखना चाहता हैं चूंकि पुरूषों की हीन भावना ही वह प्रमुख कारण हैं जो उसे असुरक्षित बनाती हैं । एक अन्य कारण यह भी कि नारी आज पुरूषों की पौशाके पहन कर आधुनिक लगना चाहती है जिसे पुरूष वर्ग बर्दाश नहीं कर पा रहा है । अतः महिलाओं को चाहिए कि वह आधुनिकता के नाम पर अपनी सभ्यता और संस्कृति को न भूलें । वैसे देखा जाये तो महिलाएं अब भी असुरक्षित हैं इसके लिए एक नहीं अनेक कारण जिम्मेदार हैं जैसे  :- घटिया सोच , हीन भावना , ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा  , एक - दूसरे से तुलना , अशिक्षा  , रूढियां ,  बढते अपराध  , लचीली न्याय व्यवस्था  , कानून का भय न होना आदि - आदि ।

ऐसी घटनाओं के बाद राजनैतिक दलों द्धारा घडियाली आंसू बहाने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है अपितु दोषियों को सरे बाजार ऐसा कठोर दंड दिया जाये कि दूसरे लोग अपराध करने से कतराये । ऐसे मुद्दे पर राजनीति करना ओछी मानसिकता का परिचायक है ।
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सुनील कुमार माथुर ©®
जोधपुर (राजस्थान)

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