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Monday, 10 August 2020

ऐ भारत माँ लाल (कविता) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'


ऐ भारत माँ लाल 
(कविता)
ऐ भारत माँ के लाल सुनो,
तुमको समझाने आया हूँ।।
अपने बेटों में तुम्हें नींद,
से आज जगाने आया हूँ।।

है आज जरूरत उसकी जो ,
बस उजियारे को फैलाए।
जो अंधभक्ति का तम काटे,
सच को लेकर आगे आए।।
है आज जरूरत भारत को,
अध्यात्म ज्ञान के चिंतन की।
जो भ्रमित न हो पाखंडों से,
ऐसे ही कलुष रहित मन की।।
बुद्धि पर पर्दे पड़े हैं जो,
मैं सभी उठाने आया हूँ ।।
अपने बेटों में तुम्हें नींद,
से आज जगाने आया हूँ।।

है छुआछूत का भेदभाव,
का रोग आज भी भारत को।
दीवारे गर मजबूत नहीं,
खतरा होता ही है छत को ।।
सब एक बने और नेक बने,
तो विश्वगुरु कहलाएंगे।
लड़ते जो रहे अकारण तो,
नाहक ही कुचले जाएंगे ।।
है शक्ति संगठन में भारी,
ये पाठ पढ़ाने आया हूँ।।
अपने बेटों में तुम्हें नींद,
से आज जगाने आया हूँ।।

ये तड़क भड़क देखा देखी.
ये भौतिकता निस्सार सभी।
मानव में मानवता उपजे,
गर यही नहीं बेकार सभी ।।
जो मात पिता की करने से,
सेवा पीछे हट जाएंगे।
सम्पन्न भले वो कितने हों ,
आनंद कहाँ से लाएंगे ।।
भारत ये स्वर्ग "अनन्त"बने,
इतना समझाने आया हूँ ।।
अपने बेटों में तुम्हें नींद ,
से आज जगाने आया हूँ ।।-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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सूने पनघट (सजल) - मृदुल कुमार सिंह

सूने पनघट
(सजल)
सूने पनघट चुप चोपालें गाँवों में|
हम-तुम होली ईद मनालें गाँवों में|

मक्का की हे रोटी बोली चूल्हे से,
आ सरसों का साग बनालें गाँवों में|

खेत, मडैया, ताल, बगीचा देख लिए,
थोडी सी गौ-धूल उडालें गाँवों में|
घर-आंगन में पानी-पानी वर्षा का,
कागज़ की फिर नाव चलालें गाँवो में|

मिल जायेगी सब लोगों की खैर-खबर,
सर्दी है चल अलाव जलालें गाँवों में।

मोबाइल पर कैसी बातें सावन की,
आओ सखियो झूला डालें गांवो में।

पशु पंक्षी क्या पेड़ 'मृदुल' से है बोले,
खूब जियें हम मिटटी वाले गाँवो में|
-०-
पता:
मृदुल कुमार सिंह
अलीगढ़ (अलीगढ़) 

-०-


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चले गए बादल (कविता) - शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

चले गए बादल
(कविता)
आए तो थे, किन्तु गरज कर,
चले गए बादल.

सघन स्वरूप हवाओं का रुख,
गति के सँग घूमा,
मानसून से मिला, नमी का,
भौतिक मुख चूमा,
इंद्रदेव के, मंत्रसूत्र में,
ढले गए बादल.

तेज हवा के, राजमार्ग से,
आसमान चौका,
मड़ई, चूक गई अपनी छत,
छाने का मौका,
ऊपर सूरज, नीचे धरती,
दले गए बादल.

बादल घिर तो गये, कहीं भी,
झींसी नहीं झरी,
फूलों की अनमनी पँखुड़ियाँ,
रोती झिरी-परी,
किस मौसम विभाग के द्वारा,
छले गए बादल.

बस अड्डे के पीछेवाला,
नाला अंध पड़ा,
जलनिकास की, बाधित नाली,
रस्ता गंध सड़ा,
कालिख, कथित प्रगति के मुँह पर,
मले, गए बादल.-०-
पता: 
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-


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Sunday, 9 August 2020

☆☆कोरोना और हमारा जीवन☆☆ (कविता) - अनवर हुसैन

☆☆कोरोना और हमारा जीवन☆☆ 
(नज्म)
किस काम का , यह मिलना मिलाना
संक्रमित कर देगा , हमें बाहर जाना
इम्तिहान है वक्त का , घर में गुजारे
चाहता हूं बात , बस यह समझाना

घर में ही है जीवन सुरक्षित
भागे "कोरोना" है अब लक्षित
एकांत को ही है सशक्त बनाना

संयम,अनुशासन की है यह साधना
सब के आरोग्य की है जो कामना
सह अस्तित्व का पाठ स्वयं को पढ़ाना

त्रासदी विकराल जो बन पड़ी है
सामाजिकता के बल इतना बढी है
विरासत हमारी हमें नहीं है भूलाना

लॉकडाउन में जीवन का ही भला है
ना बदले खुद को तो सिलसिला है
छूना छुआना हमें "कोरोना" घटाना

दृढ़ संकल्प हमारा , ताकत हमारी
इच्छा शक्ति से ही मिटेगी बीमारी है
"कोरोना”का डर है दिल से मिटाना

समय बहुत सारा दिनचर्या को हमारे
रचना कलाओं आत्म प्रशिक्षण में गुजारे
आत्मविश्वास के बल हमें पार जाना

समझो बुझाओ सबको जीवन गाथा
हौसला रखो जरूर मिटेगा सन्नाटा
जीवन का फिर से होगा ताना-बाना

कौन जानता है शत्रु कब जाएगा
विपत्ति मे मन क्षणिक घबराएगा
ले दीप्तम् से कैसा डरना डराना

घर में खुशहाली संग परिवार है
संस्कृति हमारी यह संस्कार है
वासुदेव कुटुंबकम हमारा तराना
-०-
पता :- 
अनवर हुसैन 
अजमेर (राजस्थान)

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एक श्मशान की मौत! (लघुकथा) - विवेक मेहता

 एक श्मशान की मौत! 
(लघुकथा)
          शहर बस रहा था। बंजर जमीन पर पेड़ कहां होते हैं! झाड़ियां थी। उन्हें काटा जा रहा था। सांप बिच्छू बहुत थे। उन्हें मारकर लाने पर रुपैया- अठन्नी मिलती थी। मकान बन रहे थे। विस्थापित बस रहे थे। समुद्र के पास का क्षेत्र होने और बंदरगाह की संभावनाएं देख, देश के और हिस्सों से भी आकर लोग बसने लगे थे। विकास हो रहा था। विकास की और भी सम्भावनाए थी।
         तभी मेरी जरूरत पड़ी। शहर से दूर, शहर में जहां प्रवेश होता है उसी रास्ते के पास मुझे बनाया गया। पास में हनुमान मंदिर भी बना। मेरी जरूरत शाश्वत थी। जो जन्मा है, वह मरेगा भी। धीरे धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी। शहर मेरे समीप आने लगा। मेरी जरूरत ज्यादा होने लगी । तो विकास भी करना पड़ा। खुले आसमान में छपरा बना। छपरे से छत बनी। बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था,  पानी की व्यवस्था, दार्शनिक उक्तियां, सुंदरता के प्रयास होने लगे। दान धर्म का पैसा आराम से मिलता। हर वर्ष मेरे ऊपर खर्चा बढता गया।
          फैलाव और बढा। रास्ते के बीच से रेलवे लाइन गुजरने लगी।मुझ तक पहुंचने में फाटक समस्या पैदा करने लगा।मेरे प्रति लगाव में कमी आने लगी। सड़क एक से दो, दो से चार, चार से छह लेन की होती गई। उसने हनुमान मंदिर को  लील लिया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी होने लगी। लोगों ने पास के शहर में दूसरा स्थान विकसित किया। कुछ वहां जाने लगे। वाहनों की संख्या बढ़ी, फाटक की तो समस्या थी ही।अब मेरे पास से फ्लाईओवर भी गुजरने लगा। मैं दब गया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी और ज्यादा बढ़ गई।
         लोगों ने दूसरा स्थान चुन लिया। जहां दिन भर भीड़ रहती थी, अब भूले भटके महीने दो महीने में एकाध बार मेरा उपयोग होता। देखभाल के अभाव में दिवाले  गिरने लगी। झाड़-झंखाड़ उग आए। गंदगी हो गई। छत दीवारें टूट गई।
          मैं समाप्त होने लगा।
-0-
पता:
विवेक मेहता
आदिपुर कच्छ गुजरात

-०-


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