धुंध
(लघुकथा)
ललिता शाम की खाने की सोच रही थी क्या बनाया जाय क्या नहीं। चलो, भिंडी ही बना लेती हूँ। और वह भिंडी काटने बैठ गई। कुछ आलस्य सा आ रहा था।
बेटी सेजल को आवाज लगाई, "बेटा एक कप चाय पिला दे, मसालेवाली, बड़ी थकान लग रही है। "
सेजल ने कहा, "माँ आराम करो, किसने कहाँ है कि शाम की तैयारी में अभी से जुट जाओ, हो जायेगा सब मैं बना लूगी, आप आराम करो चायपीकर सो जाओ ।"
सेजल ने माँ और अपने लिये भी चाय लेकर आई। तो देखती है माँ बडे जतन से एक-एक भिंडी काट रही है। ख़राब भिंडी को थोडा काट देखती है फिर थोडा अच्छा वाला भाग काट कर रखती है।
सेजल ने पूछा, "ये क्या माँ ख़राब भिंडी में से भी आप अच्छा भाग निकाल लेती हो, फेंक दो क्यो इतनी मेहनत!" "अरे कितनी मंहगी है सब्ज़ियाँ मंहगाई आसमान छू रही है"
"माँ आप जितने जतन से घर की साल सम्भाल करती है उतनी जतन से आप ने दादा-दादी को नही सम्भाला, मुझे दुख है आप उनकी एक दो गल्तियों को इसी तरह नजर अंदाज कर अच्छाईयों को देखती, क्यों इतनी कठोर बन जाती हो, पापा कितने उदास है जब से दादा दादी गये है, आपको सहारा था दादी का, बैठे बैठे कितने काम कर देती थी । दादा जी भी बाज़ार से सामान ले आते थे हमारे स्कूल के काम बहार के काम पापा को भी आराम व मददत हो जाती थी। अब सब काम में लगे रहते पर व्यवस्थित कुँछ नहीं हो पाता। आप लोग लड़ने लगे हो गोलू बिगड़ रहा है माँ, माँ मैं छोटी हूँ पर मेरी बात मान लो। उनकी एक दो गलति की सजा उनके पूरे व्यक्तित्व को नकार देना अकेला छोड़ देना सही नहीं है । उन्होंने पूरी जिंदगी पापा को बनाने में खर्च कर दी। सोचो पापा कितना दुखी होंगे। क्या दादा दादी की किमत इन सब्ज़ियों से कम हो गई है?" ललिता ने रोते हुये चाय का कप रखा।
और सेजल को बोली, "चल मेरे साथ।"
"कहाँ?" मां बोली।
"चल कुँछ मत पूछो अब देर नहीं।"
तूने मेरी आँखों की धुँध साफ़ करती, बेटा! और वो दादा के मकान के सामने खड़ी थी काल बेल बजा दी
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स्थाई पता
अलका पाण्डेय
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एक अच्छी भावपूर्ण लघु कथा। सकारात्मक संदेश देने की सफल कोशिश। बधाई
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