बरस उन्नीस
(नववर्ष कविता)
तुम आए और चल दिए अभी तो
देखा भी नहीं
जी भर मैंने तुम्हें
बैठी भी नहीं चंद पल पास तुम्हारे
चैन से चाहती थी
बतियाना तुम संग,
स्मृतियाँ
कुछ बीते समय की
ताजा करना
कुछ हंसी ठिठोली कर बहलाना
खुद को ,
व्यस्तता के चक्रव्यू ने
उलझाए रखा कयच्छ ऐसे
उभरने ही न दिया
कि सुना दिया तुमने फरमान
अपनी रवानगी का ..
रोकना चाहती हूँ तुम्हें
कुछ पल और
मगर रोके से कब किसके रुके हो तुम
थमा कर ऊँगली
बीस की
कह रहे हो
टाटा! टाटा! बाय ! बाय !
अच्छा बाय ! बाय !
प्रिय उन्नीस !
करना चाहती हूँ आभार तुम्हारा
दी हैं जो उपलब्धियाँ तुमने ,
बांधे हैं जितने भी ताज
सिर मेरे,
सफलताओं के हार
पहनाए गले मेरे
उनका साभार ।
आँगन में मेरे बिखेरे हैं
जो भी खुशियों के पल
दी हैं सौगात
नए रिश्तों की,
सजाई है होठों पर
मेरे मुस्कान
उन एक-एक लम्हों की
रहूँगी ऋणी।
हाँ ! सुनो देते जाओ मंगलकामनाएं
बीस के लिए
सहेजना चाहती हूँ
आंचल में
फिर यही प्रेम दुलार,
रहे आशीष
ना कभी पीड़ित रहूँ
विजय दंभ से ,
न सताए ताप
ईर्ष्या , द्वेष का ,
भावना - संभावनाओं की राह गहूँ,
बरस उन्नीस! आते रहना स्मृतियों में यदा-कदा,
आने-जाने से
बना रहता है प्यार
पुनः सादर आभार ।-0-
निवास -
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