कुछ दिन तो तुम और ठहरते
(कविता)आये हो तो, जाओगे ही,
छोटी लेकिन बात सही है,
यह बस्ती है, गाँव तुम्हारा,
कुछ दिन तो तुम और ठहरते.
माटी के घर, नहीं रहे अब,
ईंटों की है, नई भूमिका,
अभी पलस्तर, नहीं हुआ है,
थिरकी तक है, नहीं तूलिका,
तूलम-तूल, खड़ीं दिवारें,
नहीं सफेदी के, पग धमके,
सूर्यदेव के, किरण पंख तक,
पेड़ों पर हैं, नहीं छ्हरते.
मान रहा यह, अभी शहर की,
नहीं खेलतीं, सुख-सुविधाएँ,
अब भी घर-घर, दुहने जाते,
लछुमन काका, भैंसें-गायें,
किन्तु यहाँ अब, रोज टहलतीं,
मुमकिन होने की गतिविधियाँ,
अमन-चैन के, घी-जौ-फल-तिल,
समिधाओं के कुंड लहरते.
बदले हुए समय में, सच है,
गाँव-मुहल्ले, कुछ शहराए,
बीत गए दिन, दुःख सावन के,
उत्पीड़न के, घन छितराए,
वर्तमान पर, उस बचपन की,
यादों के पल, कीर्तिमान ध्वज,
नीलगगन के उच्चमान तक,
लहर-लहरकर, विविध फहरते.०-
पता:
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-
बहुत बहुत बधाई है आदरणीय! सुन्दर कविता के लिये।
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