(कविता)
तुम और मैं एक धागे से बँधे हैं,
तुम निभा रही हो और छुपा मैं रहा हूँ,
फ़िर भी तुम कितनी सहज-सी,
औऱ मैं कितना असहज-सा।
तुम कुछ न कहकर मेरे साथ बहती रही,
काँटों पर भी मेरे आगे हँसते-हँसते चलती रही,
मैं चाहकर भी पर्दा करता रहा,
तुम न चाहकर भी सहयोग करती रही।
मैं निर्बंध,तुम बंधन में बँधी,
मैं मनमानी करता रहा,
तुम मेरे मन के मुताबिक चलती रही,
तुम मेरे अवगुणों को छुपाती रही,
तुम्हारे सद्गुणों की ओर मैं अनदेखा करता रहा।
मैं शासक बना, तुम निस्सीम देशभक्त,
मैं मेरा घर कहता रहा,
तुम अपना आशियाना कहती रही,
किसी भी हाल में तू मेरा हाथ थामी रही।
मैं क्या बोलूँ , क्या कहूँ,
मैं मुक्त पंछी-सा,
तुम मेरे लिए आसमाँ बनी।
-०-
गोरक्ष जाधव
गोरक्ष जाधव
मंगळवेढा (महाराष्ट्र)
-०-
No comments:
Post a Comment